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________________ ५६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति, अनश्नन्यो अभिचाकशीति ।। और कहा :-"यह मन्त्र पूर्णतः स्पष्ट रूपेण जीव और ईश्वर के भेद को प्रकट कर रहा है। इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि जीव कर्म फल का भोक्ता है और इसके विपरीत ईश्वर कर्म फल से किंचित्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता।" शंकर ने कहा :--"यह भेद प्रतिपादन नितांत निष्फल है। इस ज्ञान से न तो स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है और न अपवर्ग की ही। श्र ति में वस्तुतः बद्धि और पूरुष का भेद प्रदर्शित किया गया है, ईश्वर और जीव का नहीं। हां, श्रति तो यही कहती है कि कर्म के फल को भोगने वाली वस्तुतः बुद्धि ही है । पुरुष उस बुद्धि से नितांत भिन्न है। इसीलिये उसे सुख-दुःख भोगने का फलाफल कदापि नहीं मिल सकता।" __मण्डन मिश्र ने कहा : -"मैं आप द्वारा कहे गये इस अर्थ का विरोध करता हैं। क्योंकि बुद्धि तो जड़ है और भोक्ता जीव चैतन्य है, जड़ पदार्थ नहीं। इस प्रकार की स्थिति में यदि कोई मन्त्र (श्र ति वाक्य) बुद्धि जैसे जड़ पदार्थ को भोक्ता बतलाता है तो इसे कोई भी बुद्धिमान् कदापि स्वीकार नहीं करेगा। आप फिर सोचिए कि उक्त श्र ति का अभिप्राय वस्तुतः जीव और ईश्वर के भेद को प्रकट करना ही है।" शंकराचार्य ने ब्राह्मण ग्रन्थ के पेंगी रहस्य के निम्नलिखित वाक्य को उद्धत किया : तयोरन्यः पिप्पल स्वादत्ति इति सत्वं अनश्ननन्यो अभिचाकशीति इति अनश्नन् अन्य: अभिपश्यति ज्ञस्तावेतौ तत्व क्षेत्रज्ञौ इति । तदेतत्सत्वं येन स्वप्नं पश्यति । अथ योऽय शारीरं उपद्रष्टा स क्षेत्रज्ञः तावेती सत्वक्षेत्रज्ञौ (पेंगी रहस्य ब्राह्मण) और कहा :- "इस ब्राह्मण ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि बद्धि . (सत्व) कर्म फल को भोगती है और जीव केवल साक्षी मात्र रहता है। इससे बुद्धि और जीव की भिन्नता स्पष्ट है। तत्व दर्शन का कर्ता नहीं बल्कि करण है । इस तरह इस पद का अर्थ जीव न होकर बुद्धि ही है। और क्षेत्रज्ञ के साथ 'शरीर' विशेषण होने के कारण इस पद का अर्थ जीव है जो कि क्षेत्र में अर्थात् शरीर में रहता है, न कि ईश्वर ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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