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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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पर्यन्त कर्म का अनुष्ठान करते रहना चाहिये क्योंकि केवल कहने मात्र से अथवा जान लेने मात्र से तब तक मुक्ति नहीं होने वाली है जब तक कि कथनी के अनुरूप ही और ज्ञान के अनुरूप ही करणी न की जाय । कार्य न किया जाय । कर्म में प्रवृत्ति न की जाय।
मण्डन मिश्र ने घनरव गम्भीर स्वर में प्रतिज्ञा की-"यह मेरी प्रतिज्ञा है कि यदि मैं इस शास्त्रार्थ में पराजित हो गया तो मैं गृहस्थ धर्म को छोड़कर सन्यास धर्म ग्रहण कर लूगा।" __ बड़ा अद्भुत और अभूतपूर्व वह शास्त्रार्थ था इन दोनों मूर्धन्य विद्
वानों का ।
मण्डन मिश्र ने औपनिषदिक द्वैतवाद की पुष्टि में अनेक युक्तियां प्रयुक्तियां प्रस्तुत की क्योंकि वे मीमांसक अनुयायी होने के कारण द्वैतवादी थे। वेदांती होने के कारण शंकराचार्य अद्वैत के पक्षधर थे अतः उन्होंने तत् त्वमसि के मूल मन्त्र के माध्यम से ब्रह्म और जीव को सर्वथा अभिन्न सिद्ध करने के लिये दोनों की अद्वतता की पुष्टि करते हुए अनेक प्रकार की युक्तियां प्रयुक्तियां प्रस्तुत की। दोनों विद्वान परस्पर एक दूसरे की युक्ति-प्रयुक्तियों को बड़े कौशल के साथ निरस्त करते रहे। मण्डन ने कहा :-"जीव अल्पज्ञ है और ब्रह्म है सर्वज्ञ सर्वदर्शी । यह तो संसार में प्रत्येक को प्रत्यक्ष है । ऐसी स्थिति में अल्पज्ञ की और सर्वज्ञ की एकता मानना प्रत्यक्ष प्रमाण से भी और अनुमान प्रमाण से भी सर्वथा अनुचित ही सिद्ध होता है।"
शंकराचार्य ने इस युक्ति को निरस्त करते हुए कहा :-"बस, इसी सिद्धांत में त्रुटि है अापकी, क्योंकि प्रत्यक्ष और श्रति में कभी कोई विरोध नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों के प्राश्रय भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण वस्तुतः अविद्या से युक्त जीव में और माया से युक्त ईश्वर में भेद बतलाता है। श्रति अविद्या और माया दोनों से रहित शुद्ध चैतन्य रूप प्रात्मा और ब्रह्म में अभेद दिखलाती है।" इसे और स्पष्ट करते हुए शंकराचार्य ने कहा :--"इस प्रकार प्रत्यक्ष का प्राश्रय कलुषित जीव और ईश्वर है और श्रुति का आश्रय विशुद्ध प्रात्मा और ब्रह्म है। विरोध वहां होता है जहां कि एक आश्रय हो। भिन्न आश्रय होने के कारण यहां किसी प्रकार का विरोध परिलक्षित नहीं होता। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष प्रमाण से अभेद श्रति का किसी प्रकार का विरोध न होने के कारण उस श्रुति का किसी भी दशा में तिरस्कार नहीं किया जा सकता।"
__ मण्डन मिश्र ने ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र को शंकराचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया :--
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