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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
अष्टौ सहस्राणि विभान्ति विद्वन् ! सद्वातिकानां प्रथमेऽत्र भाष्ये । अहं यदि स्यामगृहीतदीक्षा, ध्रुवं विधास्ये सुनिबन्धमस्य ।।
(शंकर दिग्विजय ७ । ८३)
शंकराचार्य ने इस प्रकार तुषानल में जलने का कारण पूछा तो कुमारिल्ल ने कहा :-"मैंने दो बड़े पाप किये हैं। एक तो अपने बौद्ध गुरु धर्मपाल का तिरस्कार अथवा शास्त्रार्थ के पण के अनुसार उसके अग्नि में जल मरने का कारण बना, दूसरा पाप मैंने यह किया कि जैमिनीय के मत की रक्षा के लिए मैंने स्थान-स्थान पर ईश्वर का खण्डन किया । ईश्वर में मेरी पूर्ण प्रास्था है। वस्तुत: मीमांसा का एक मात्र उद्देश्य है कर्म की प्रधानता दिखलाना । इसी उद्देश्य से मैंने जगत् के कर्ता और कर्म फल के दाता के रूप वाले ईश्वर का खण्डन किया है। कुछ भी हो, इन्हीं दोनों अपराधों के प्रायश्चितस्वरूप मैंने यह तुषानल में दाह की प्रतिज्ञा की है। मेरे भाव वस्तुत: दोषहीन थे किन्तु लोक शिक्षण के लिये ही मैं इस प्रकार का प्रायश्चित स्वेच्छा से ग्रहण कर रहा हूं। आप मेरे पट्ट शिष्य मण्डन मिश्र को तेदान्त के अपने अद्वैत मत में दीक्षित कर लीजिये । वह आपके अद्वत की वैजयन्ती भारत के क्षितिज में अवश्यमेव फहरावेगा। ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।"
शंकर ने उसी समय कुमारिल्ल से विदा ले मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने का निश्चय किया। वे मण्डन मिश्र के भव्य भवन पर पहंचे ।
___मण्डन मिश्र वस्तुतः तत्कालीन भारत के विद्वानों में उच्चकोटि का विद्वान् और अद्वैत से भिन्न सभी मतावलम्बियों का वह अग्रणी था। शंकराचार्य ने यह अनुभव किया कि मण्डन मिश्र को पराजित करना भारत की समस्त विद्वन्मण्डली को परास्त करने के तुल्य होगा। शास्त्रार्थ के माध्यम से इस प्रकार का विद्वान् शिष्य प्राप्त हो जाय तो अद्वैत के प्रचार-प्रसार में भी उससे बड़ी सहायता मिलेगी। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया।
शास्त्रार्थ में जय-पराजय का निर्णय देने के लिये मण्डन मिश्र की परम विदूषी धर्मपत्नी भारती को मध्यस्थ बनाया गया। शंकर ने अपना पूर्व पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा :--
ब्रह्म के परमार्थसच्चिदमलम् विश्वप्रपञ्चात्मना, शुक्ती रूप्यपरात्मनेव बहलावानावृतम् भासते ।
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