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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
अपने इस लक्ष्य की, अपनी इस अान्तरिक आकांक्षा की पूर्ति के लिये शंकराचार्य ने प्रस्थानत्रयी पर ब्रह्मसूत्र भाष्य, गीताभाष्य और उपनिषद् भाष्य, इन तीन महाभाष्यों, चार अन्य भाष्यों, ११ स्तोत्रों और सर्व साधारण को ब्रह्माद्वैत सिद्धान्तों का बोध कराने वाले ३६ प्रकरण ग्रन्थों की रचना की। भाष्यों में उन्होंने जैन बौद्ध मीमांसक आदि प्रायः सभी धर्मों के सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त की पुष्टि की।
अद्वैतवाद की पुष्टि पूर्वक, इससे इतर अन्य सभी धर्मों के सिद्धान्तों व मान्यताओं के खण्डन के साथ वैदिक धर्म की प्रतिष्ठापना एवं इसके प्रचार-प्रसार के लिये विशाल भारत की दिग्विजय यात्रा करने का शंकर ने निश्चय किया।
प्राचार्य शंकर ने सबसे पहले और सबसे पहला शास्त्रार्थ मण्डन मिश्र के साथ किया। इससे पूर्व कि मण्डन मिश्र के साथ शंकराचार्य के शास्त्रार्थ का विवरण प्रस्तुत किया जाय, यहां यह बताना आवश्यक है कि सर्वप्रथम वे मण्डन मिश्र के पास ही शास्त्रार्थ के लिये क्यों गये।।
ब्रह्म सूत्र भाष्य का निर्माण करने पर शंकराचार्य ने सोचा कि यदि कोई उच्च कोटि का विद्वान् इस महाभाष्य पर वार्तिक की रचना कर दे तो अत्युत्तम रहेगा। उन्होंने कुमारिल्ल भट्ट की प्रशंसा सुनी कि वात्तिक लिखने की कला में वे अति निपुण हैं। कुमारिल्ल ने साबर भाष्य पर श्लोकवात्तिक और तन्त्रवात्तिक ये दो भाष्य लिखकर भारत की सम्पूर्ण विद्वान्मण्डली पर पूरी-पूरी धाक जमा ली थी। शंकराचार्य के मन में कुमारिल्ल के वात्तिक कार के रूप में उत्कृष्ट अनुभव और उनके प्रकांड पांडित्य का लाभ उठाने की उत्कट उत्सुकता जागृत हुई । वे अपने शिष्यों सहित त्रिवेणी के तट पर पहंचे । जब उन्हें यह विदित हया कि कुमारिल्ल भट्ट तुषानल में अपना शरीर जला रहे हैं, तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे तत्काल कुमारिल्ल के पास गये और उन्होंने देखा कि वस्तुतः उनके शरीर का नीचे का भाग तुषानल में जल रहा है । शंकराचार्य ने देखा कि उनके मुख मण्डल पर अलौकिक आभा और निस्सीम शान्ति का साम्राज्य छाया हुआ है । कुमारिल्ल भट्ट ने शंकरा. चार्य की दिग्दिगन्त व्यापिनी कीत्ति को पहले ही सुन रक्खा था । सहसा शंकर को अपने सम्मुख देखकर उनकी प्रसन्नता का पारावार नही रहा । अपने शिष्यों से कुमारिल्ल ने शंकर की पूजा करवाई। शंकर ने अपना भाष्य कुमारिल्ल को दिखाया । भाष्य को देखकर कुमारिल्ल ने बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और कहा "मैं तुषानल में जलने की दीक्षा ग्रहण कर चका हूं। अन्यथा मैं इस पर वात्तिक की अवश्यमेव रचना करता।" शंकर दिग्विजय में कुमारिल्ल के इस कथन का निम्नलिखित रूप में उल्लेख है :--
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