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शंकराचार्य
वैदिक धर्म के पुनरुद्धार एवं अद्वैत (ब्रह्माद्वैत) सिद्धान्त की पुनः प्रतिष्ठापना के लिये शंकराचार्य ने अपने जीवन के ३२ वर्ष जैसे स्वल्प काल में विपुल वैदिक साहित्य के निर्माण के साथ-साथ आर्य धरा के दक्षिण सागर से उत्तर में हिमांचल के कोड़ में स्थित तिब्बत तथा नेपाल प्रदेश तक और पूर्व सागर से पश्चिम सागर तक जिस आश्चर्यजनक द्रुतगति से घूम-घूम कर न केवल बौद्ध एवं जैन सिद्धान्तों का ही अपितु ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त से भिन्न मीमांसक, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक आदि वैदिक मतों के सिद्धान्तों का खण्डन करते हए अपने ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त का विशाल भारत के कोने-कोने में प्रचार किया, उसे देखते हुए सहज ही प्रत्येक मनीषी यही अनुभव करता है कि शंकराचार्य अपने समय के धर्माचार्यों एवं विद्वानों में वस्तुतः अद्भुत मेधा शक्ति, प्रभावोत्पादक अप्रतिम प्रतिभा, अनुपम कर्मठता और अपराजेय अथवा सर्वजयी वाग्मिता के धनी थे।
शंकराचार्य ने १२ वर्ष की वय में वेद-वेदांगों के तलस्पर्शी ज्ञानार्जन के साथ उसमें पारीणता प्राप्त कर, तथा १६ वर्ष की वय में प्रस्थानत्रयी पर महान भाष्यों का निर्माण कर आर्य धरा के तत्कालीन मूर्धन्य विद्वानों को चमत्कृत एवं पाश्चर्याभिभूत कर दिया।
"तत्त्वमसि'
प्रो जीव ! तु वही है, जिसे ब्रह्म कहा गया है, कहा जाता है और कहा जाता रहेगा । और
ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्म व नापरः ।। उनके ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त का यह मूल मंत्र जीवन भर शंकराचार्य के कण्ठस्वर से उद्घोषित एवं. उनके रोम-रोम से, देह-यष्टि के अगा-प्ररण से प्रतिध्वनित होता रहा । उनकी प्रस्थानत्रयी पर भाष्य आदि सभी कृतियों से, उनके दिग्विजय, मठ-स्थापन आदि सभी कार्यकलापों से "तत्त्वमसि'" और "जीवो ब्रह्म व नापरः" यही ध्वनि गंजरित होती है। उनकी जीवनचर्या से स्पष्टतः प्रकट होता है कि प्रखंत सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार को उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया था। शंकराचार्य की यह प्रान्तरिक आकांक्षा थी कि वैदिक मिद्धान्त ब्रह्मादतवाद का पार्यधरा पर वर्चस्व रहे, प्रकल्पांत ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त का ही प्रार्य धरा पर एक. छत्र प्राधिपत्य रहे।
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