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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
जो कि शंकराचार्य के समकालीन होते हए भी शंकराचार्य से लगभग ८०-८५ वर्ष वय की दृष्टि से बड़े थे, का समय ज्ञान सम्बन्धर से पश्चात् का अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का था।
कुमारिल्ल भट्ट की विद्वत्ता के प्रति अपने आन्तरिक उद्गार प्रकट करते हुए बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रन्थ 'श्री शंकराचार्य' में लिखा है :
___"वैदिक धर्म के पुनरुत्थान व पुनः प्रतिष्ठा के लिये हम आचार्य कुमारिल्ल के । र ऋरिण हैं। बौद्धों का वैदिक कर्मकाण्ड के खण्डन के प्रति महान् अभिनिवेष था । कुमारिल्ल ने इस अभिनिवेष को दूर कर वैदिक कर्मकाण्ड को दृढ़ भित्ति पर स्थापित किया तथा वह परम्परा चलाई जो आज भी अक्षुण्ण रीति से विद्यमान है । सच तो यह है कि इन्होंने ही शंकराचार्य के लिये वैदिक धर्म प्रचार का क्षेत्र तैयार किया। प्राचार्य शंकर की इस अव्याहत सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं प्राचार्य कुमारिल्ल भट्ट को प्राप्त है।"
प्राचार्य कुमारिल्ल ने अपने गुरु बौद्धाचार्य को अपमानित कर पात्म दाह के लिये बाध्य किया और जैमिनी के सिद्धान्तों की पुष्टि के लिये ईश्वर में अखण्ड विश्वास रखते हुए भी जो कर्म को प्रधानता दी इसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने तुस की भूसी की आग में अन्तिम समय में आत्मदाह कर लिया।
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