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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्यः ]
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रूप से कुमारिल्ल भट्ट के शिष्य थे और भवभूति कन्नौज के राजा यशोवर्मा की सभा के पण्डित थे। यशो वर्मा का शासनकाल ईस्वी सन् ७२५ से ७५२ तक का सुनिश्चित सा है । कल्हण ने अपने विख्यात ग्रन्थ 'राजतरंगिणी' में उल्लेख किया है कि ईस्वी सन् ७३३ में काश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड ने भवभूति को पराजित कर दिया था । कल्हण का वह श्लोक इस प्रकार है :
कविर्वाक्पति राज श्री भवभूत्यादि सेवितः । जितो ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुति वन्दिताम् ।।
(राजतरंगिणी) इन दोनों तथ्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भवभूति का समय ईस्वी सन ७०० से ७५२ के बीच का था। इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए विचार किया जाय तो भवभूति के गुरु कुमारिल्ल भट्ट का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रहा होगा।
शंकराचार्य ने अपनी सौन्दर्य लहरी में जगदम्बिका की स्तुति करते हुए लिखा है .
तवस्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः, पय: पारावारः परिवहति सारस्वत इव । दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत्, कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता ।।
प्रायः सभी टीकाकारों ने इस द्रविड शिशु तमिलनाड के प्रसिद्ध शैव सन्त एवं शैव क्रान्ति के सूत्रधार ज्ञानसम्बन्धर को ही माना है जिसे भगवती ने स्वयं अपने स्तन का दुग्धपान करवाया और इस देवी कृपा से वह द्रविड शिशु महान् कवि बन गया।
यह इतिहास प्रसिद्ध है कि ज्ञानसम्बन्धर महान् कवि थे । तेवारम् में निबद्ध उनकी क्रान्तिकारी कविताएं जन-मन को उद्वेलित कर शैव सम्प्रदाय के प्रति उन्हें हठात् आकृष्ट कर लेती थीं।
ज्ञान सम्बन्धर का समय प्रस्तुत ग्रन्थ के पिछले पृष्ठों में दिया जा चुका है कि ईस्वी सन् ६४० के आस-पास उन्होंने पाण्ड्यराज सुन्दरपाण्ड्य को जैन से शैव धर्म में दीक्षित कर उसकी सहायता से जैनों का संहार और शैव धर्म का उद्धार करवाया। शंकराचार्य के इस उपर्युल्लिखित श्लोक से यह सिद्ध होता है कि शैव. सन्त ज्ञान सम्बन्धर शंकराचार्य मे पूर्वकाल में हुए थे। शंकराचार्य ज्ञान सम्बन्धर के पश्चाद्वर्ती काल के धर्माचार्य थे। इससे यह सिद्ध होता है कि कुमारिल्ल भट्ट,
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