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________________ ५५२ ] [ जन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ "प्रवादिषं वेदविघातदक्षेः तानाशकं जेतुमबुध्यमानः । तदीयसिद्धान्तरहस्यवा/न्, निषेध्यबोद्धाद्धि निषेध्यबाधः ॥" (मावव-लिखित शंकरदिग्विजय ७६३) अर्थात्-किसी भी दर्शन का अथवा शास्त्र का तब तक समीचीन रूप से खण्डन नहीं किया जा सकता जब तक कि उसके गूढ़ रहस्यों का पूर्ण रूपेण ज्ञान नहीं कर लिया जाता। मुझे बौद्ध दर्शन की धज्जियां उड़ानी थीं अतः नम्र होकर मैं बौद्धों के विश्वविद्यालय में उनके सिद्धान्तों का अध्ययन करने के लिये गया । नालन्दा में उन्होंने सम्भवतः धर्मपाल नामक बौद्धाचार्य के पास, जो कि उस समय नालन्दा विश्वविद्यालय के अध्यक्ष थे, बौद्ध दर्शन का अध्ययन प्रारम्भ किया । बौद्ध दर्शन में निष्णातता प्राप्त कर चुकने के पश्चात् की घटना का उल्लेख करते हुए कुमारिल्ल भट्ट ने शंकराचार्य से कहा था कि एक दिन धर्मपाल बौद्ध धर्म की व्याख्या अपने शिष्यों के समक्ष कर रहे थे। उस समय उन्होंने प्रसंग आने पर वेदों की निन्दा करना प्रारम्भ कर दिया। वेदों की निन्दा सुनकर मेरी प्रांखों से अश्रु ओं की अविरल धारा बहने लगी । मेरे पास बैठे हुए मेरे सहपाठियों ने धर्मपाल का ध्यान मेरी ओर आकृष्ट किया। धर्मपाल द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर मैंने स्पष्ट रूप से उन्हें कहा कि आप वेदों के गूढ रहस्यों को नहीं समझ पाये हैं इसलिये अपनी इच्छानुसार वेदों की निन्दा कर रहे हैं । मेरा इतना कहना था कि बौद्ध विद्यार्थियों ने मुझे वैदिक ब्राह्मण समझ कर बौद्ध विहार के उच्चतम शिखर से पृथ्वी पर धकेल दिया। सब ओर से अपने आपको असहाय पाकर मैंने वेदों की शरण ली और उच्च स्वर में कहा : पतन् पतन् सौधतलान्वरोरुहं, यदि प्रमाणं श्रुतयो भवन्ति । जीवेयमस्मिन् पतितो समस्थले, यदि मज्जीवने तत् श्रुतिमानता गतिः ।। (शंकर दिग्विजय ७६८) संशयात्मक 'यदि' शब्द के प्रयोग कर देने के परिणामस्वरूप मेरी केवल एक प्रांख ही फूटी और मैं पूर्ण-रूपेण अक्षत अवस्था में धरातल पर इस प्रकार उतरा मानो पुष्प शय्या पर गिरा होऊं । वेद भगवान् ने मेरी रक्षा की। तदनन्तर कुमारिल्ल ने बौद्धाचार्य धर्मपाल से पण रखकर शास्त्रार्थ किया। धर्मपाल प्राचार्य कुमारिल्ल भट्ट से पराजित हुया और अपनी प्रतिज्ञानुसार भूसे की आग में धर्मपाल ने अपने आपको जला डाला। जहां तक कुमारिल्ल भट्ट के समय का प्रश्न है इस सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतैक्य के स्थान पर मत वैभिन्य है। प्रसिद्ध नाटककार भवभूति निस्सन्दिग्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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