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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ५५१ मैथिल प्रांत में यह पारम्परिक जनश्रु ति प्रसिद्ध है कि कुमारिल्ल भट्ट मैथिल ब्राह्मण थे। इनके जीवन का कहीं विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता। तिब्बत के विद्वान् तारानाथ के उल्लेखानुसार कुमारिल्ल भट्ट बड़े ही समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ थे । इसके पास धान के अनेक खेत थे। इनके घर में पांच सौ दास तथा पांच सौ दासियां थीं। तारानाथ ने विख्यात बौद्धाचार्य धर्मकीत्ति के साथ कुमारिल्ल भट्ट के शास्त्रार्थ का और शास्त्रार्थ में धर्मकीत्ति से हार जाने पर बौद्धधर्म स्वीकार कर लेने की घटना का विस्तार के साथ उल्लेख करते हुए लिखा है कि धर्मकीत्ति ने नालन्दा विश्वविद्यालय में वहां के पीठस्थविर बौद्धाचार्य धर्मपाल के साथ बौद्धशास्त्रों का और बौद्धन्याय का गहन अध्ययन किया । बौद्धदर्शन में निष्णातता प्राप्त करने के पश्चात् इनके अन्तर्मन में उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई कि वे वैदिक दर्शन के गूढ रहस्यों का भी अध्ययन करें। ___उस समय कुमारिल्ल भट्ट वैदिक दर्शन के अप्रतिम विद्वान् गिने जाते थे। उनके पास वैदिक दर्शन का अध्ययन करने का उन्होंने निश्चय किया। किन्तु एक वैदिक दर्शन का विद्वान किसी बौद्ध विद्यार्थी को वैदिक दर्शन का ज्ञान कैसे दे सकता है ? यह विचार कर वह एक परिचारक के छद्म वेष में कुमारिल्ल के घर में रहने लगे। वहां उन्होंने बड़ी लगन और तत्परता के साथ गृहकार्य करते हुए गृहस्वामिनी की कृपा प्राप्त कर ली। कुमारिल्ल भट्ट भी इनकी सेवाओं से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी के आग्रह पर वेदपाठी दूसरे विद्यार्थियों के साथ वैदिक दर्शन शास्त्र का पाठ सुनने की उन्हें अनुमति दे दी। कुशाग्र बुद्धि धर्मकीत्ति ने स्वल्प काल में ही वैदिक दर्शन के गूढ़ रहस्यों को हृदयंगम कर लिया और वे वैदिक दर्शन के पारदृश्वा विद्वान् बन गये। अपनी आकांक्षा के पूर्ण हो जाने पर धर्म कीर्ति ने अपना वास्तविक परिचय देते हुए वैदिक विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिये चुनौती दी। धर्मकीर्ति ने करणाद् गुप्त नामक एक वैशेषिक आचार्य को और वैदिक दर्शन के कतिपय उच्चकोटि के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अन्ततोगत्वा उसने कुमारिल्ल भट्ट को भी शास्त्रार्थ के लिये आमन्त्रित किया। गुरु शिष्य दोनों के बीच बहुत दिनों तक वह शास्त्रार्थ चलता रहा और अन्त में कुमारिल्ल भट्ट ने धर्मकीत्ति के समक्ष अपनी पराजय स्वीकार करते हुए अपने पांच सौ शिष्यों के साथ बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। यह सब कुछ तारानाथ ने तिब्बतीय जनश्र ति के आधार पर उल्लेख किया है। इसके विपरीत कुमारिल्ल भट्ट ने शंकराचार्य के समक्ष स्पष्ट रूप से कहा था : ' शंकर दिग्विजय, (माधव कृत) सर्ग ७, श्लोक संख्या ६४ से ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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