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सिंहावलोकन ]
ऐतिहासिक तथ्यों की पूर्णतः पुष्टि होती है । जैतारण (राजस्थान) के स्थानकवासी ज्ञान भण्डार से भी एक ऐसी पट्टावली उपलब्ध हुई है, जिसमें वीर नि० सं० १ से वीर नि० सं० २१६८ तक की अविच्छिन्न प्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों के जन्म, दीक्षा, प्राचार्यकाल एवं स्वर्गारोहण काल के लखे-जोखे आदि अनेक मननीय ऐतिहासिक तथ्यों के साथ स्पष्ट विवरण उल्लिखित है। पट्टावलीकार ने किन पुरातन अाधारों पर से उन सब ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन किया है, यदि इसका भी उल्लेख मिल जाता तो बड़ा प्रमोद होता।
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत ततीय भाग के आलेखन में प्रारम्भ से ही अब तक सभी पटावलियों, शिलालेखों, चरित्र-ग्रन्थों, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्यान्य उपलब्ध ग्रन्थों की प्रशस्तियों आदि के साथ-साथ 'दुस्समा-समणसंघ-थयं' सावचूरि, 'तित्थोगाली पइन्नय' और जैतारण ज्ञान भण्डार से उपलब्ध पट्टावली आदि की प्रमुख रूप में सहायता ली गई है ।
प्रस्तुत तृतीय भाग में 'दुस्समासमणसंघथयं' के द्वितीयोदय के शेष १५ (पन्द्रह) युगप्रधानों के समय का तथा उससे कूछ उत्तरवर्ती काल का इतिहास विशद् रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है । 'सिरि दुस्समासमरणसंघथयं' में आर्य सत्यमित्र के पश्चात् हुए युगप्रधानाचार्यों के जो नाम उल्लिखित हैं वे इस प्रकार हैं .--
सिरि सच्चमित्तं हारिलं, जिणभदं वंदिमो उमासाई । पुसमित्त संभूई, माढरसंभूई धम्मरिसि ॥ १४ ।। जिट्ठग फग्गुमित्त, धम्मघोसं च विणयमित्त च । सिरि सोलमित्तं, रेवइमित्तं, सूरि सुमिणमित्तं हरि मित्तं ।। १५ ।।
उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने वि० सं० १७०८ को अपनी रचना 'लोकप्रकाश' के ३४वें सर्ग में उपरिलिखित गाथाओं का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार दिया है :--
सत्यमित्रो हारिलश्च, जिनभद्रो गणीश्वरः । उमास्वाति: पुष्यमित्रः, संभूतिः सूरिकुजरः ।। ११६ ।। तथा माढरसंभूतो, धर्मश्री संज्ञको गुरुः । ज्येष्ठांगः फल्गुमित्रश्च, धर्मघोषा ह्वयो गुरुः ।। १२० ।। सूरिविनयमित्राख्यः शीलमित्रश्च रेवतिः । स्वप्नमित्रो हरिमित्रो, द्वितीयोदय सूरयः ॥ १२१ ।। अर्थात् "तित्थोगालीपइन्नय' नामक ऐतिहासिक महत्व के प्राचीन ग्रन्थ में जिन श्रु तपारग प्राचार्यों के अवसान के साथ ही श्रु त-शास्त्र-विशेष के ह्रास का
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