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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३ के काल को "श्रुतकेवलिकाल" की, आर्य स्थूलिभद्र से आर्य वन तक के काल को “दश पूर्वधरकाल" की एवं आर्य रक्षित से,अन्तिम एक पूर्वधर प्रार्य देवद्धि गणि क्षमाश्रमण तक के काल को "सामान्य पूर्वधरकाल' की संज्ञा दी गई है। आर्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती काल अर्थात-वीर नि० सं० १००० से न केवल अद्यावधि अपितु आगे के, इस भरत क्षेत्र के इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम प्राचार्य आर्य दुःप्रसह तक के समग्र काल को भी "सामान्य श्रतधर काल" की संज्ञा दी जा रही है। सम्पूर्ण तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर आर्य देवद्धि क्षमाश्रमण तक के एवं उनसे उत्तरवर्ती काल का यही छः विभागों में वर्गीकरण संगत प्रतीत होता है। ___“सामान्य-श्र तधर-काल" की वीर नि० सं० १००१ से अद्यावधि पर्यन्त जो निपुल ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध हुई है अथवा जो उपलब्ध हो सकती है, उसको दृष्टि में रखते हुए १५०० वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि के सर्वांगपूर्ण इतिहास का आलेखन तृतीय भाग, चतुर्थ भाग और पंचम भाग- इन तीन भागों में विभक्त करना सभी दृष्टिय से समुचित समझा गया है। तृतीय भाग में आर्य देवद्धि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के काल से भगवान महावीर के ४७ वें पट्टधर आचार्य कलशप्रभ तक का, चतुर्थ भाग में लोंकाशाह तक का एवं पंचम भाग में लोंकाशाह से उत्तरवर्ती काल का इतिहास प्रस्तुत करने का हमारा संकल्प है। प्रस्तुत "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रन्थ के द्वितीय भाग के लेखन के समय वीर नि० सं० १ से १००० तक के ऐतिहासिक घटनाक्रम को शृंखलाबद्ध अविच्छिन्न रूप में कालक्रमानुसार प्रस्तुत करने के उद्देश्य से सभी ऐतिहासिक तथ्यों पर गहन चिन्तन-मनन के अनन्तर "दुस्समासमणसंघथयं" और उसके साथ संलग्न युगप्रधानाचार्यों के जीवनवृत्त की समयसारिणी (जन्मकाल, गृहस्थावासकाल, दीक्षाकाल, युगप्रधानाचार्यकाल और पूर्ण आयू के लेखे-जोखे की सारिणी) को उपर्युक्त १००० वर्ष के ऐतिहासिक घटनाक्रम को प्रमख रूप से प्रस्तुतीकरण का मुख्य आधार बनाया गया था। इसी सारिणी में उल्लिखित कालक्रम ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर पुनः पुनः परखने पर भी अब तक किंचित्मात्र भी असत्य एवं कल्पित नहीं समझा गया है । ____ "दुस्समा-समरणसंघथयं" में उल्लिखित प्रथमोदय के २० युगप्रधानाचार्यों एवं द्वितीयोदय के २३ में से सत्यमित्र तक आठ युगप्रधानाचार्यों तथा उनके समय में हुए सभी वाचनाचार्यों और गणाचार्यों आदि का इतिवृत्त विस्तार के साथ दिया जा चुका है । तृतीय भाग के आलेखन के लिए आवश्यक ऐतिहासिक सामग्री संकलित करते समय "तित्थोगाली पइन्नय" नामक प्राचीन ग्रन्थ में ऐसी अनेक गाथाएं देखने में आईं, जिनसे "दुस्समासमणसंधथयं" में उल्लिखित छः सात महत्वपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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