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वीर मम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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___ जैसा कि पहले बताया जा चुका है राजा सुधन्वा का और कर्णाटक में उसकी राजधानी उज्जैनी नगरी का जैन वांग्मय में अथवा कर्णाटक के शिलालेखों में कहीं कोई उल्लेख नहीं है । इतना सब कुछ होते हए भी इस राजा सुधन्वा को केवल काल्पनिक पुरुष नहीं माना जा सकता क्योंकि स्वयं शंकराचार्य ने इस राजा सुधन्वा के सम्बन्ध में अनेक बार उल्लेख किया है । शंकर दिग्विजय में भी स्पष्ट उल्लेख है कि राजा सुधन्वा अपने सैनिकों के साथ शकराचार्य की दिग्विजय यात्रा में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक साथ रहा ।
शंकराचार्य के शिष्य माधव ने तो यहां तक उल्लेख किया है कि जब शंकराचार्य के साथ दिग्विजय करते हुए वे लोग कर्णाटक में पहुंचे तो वहां के कापालिकों की सशस्त्र सेना के नायक कच्च ने अपने सैनिकों के साथ शंकराचार्य के शिष्यों पर आक्रमण किया। माधव लिखते हैं कि यदि राजा सुधन्वा अपने अस्त्र-शस्त्रों से उन्हें मार नहीं भगाते तो कच्च और उसकी सेना शंकर के सभी शिष्यों को मौत के घाट उतार देते । राजा सुधन्वा ने बड़ी वीरता के साथ भैरव की सेना को अपने तीरों के तीखे प्रहारों से यमधाम भेज दिया और इस प्रकार राजा सुधन्वा ने शंकर के शिष्यों की प्राणरक्षा की। ककच्च इस पराजय से बड़ा क्षुब्ध हुअा। उसने स्वय भगवान् भैरव का अपनी सहायता के लिये आह्वान किया। माधव आगे लिखते है कि भैरव ने प्रकट होते ही अपने परम भक्त क्रकच्च को फटकारते हुए कहा - "तुभं पता नहीं है कि ये भगवान शंकर के ही अवतार हैं।"१ शंकर की दिग्विजय यात्रा के विवरण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस दिग्विजय यात्रा में उनके भक्त शिष्यों की एक विशाल मण्डली के साथ-साथ वैदिक धर्म का परम हितैषी राजा सुधन्वा भी शंकराचार्य के शिष्य मंडल की आकस्मिक आपत्तियों से रक्षा करने के लिये शंकराचार्य की शिष्य मण्डली के प्रारम्भ से अन्त तक साथ रहा ।
स्वयं शंकराचार्य ने महाराजा सुधन्वा का निम्नलिखित रूप में अपने महान् शासन में उल्लेख किया है :----
सुधन्वनः समौत्सुक्य निवृत्यै धर्महेतवे । देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत् ।।१५।। सुधन्वा हि महाराजस्तदन्ये च नरेश्वराः ।
धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम् ।।१७॥२ स्वयं शंकराचार्य तथा उनके शिष्यों द्वारा किये गये उपयुक्त उल्लेखों से यही फलित होता है कि कर्णाटक में सुधन्वा नाम का राजा था जिसे कुमारिल्ल भट्ट ने जैन से वैदिक परम्परा का अनुयायी बनाया । १ श्री शंकराचार्य पृष्ठ संख्या १०५, १०८ २ वही महानुशासनम्, पृष्ठ २०६, २१०
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