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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
अवसर की टोह में था कि जैन विद्वानों और वैदिक विद्वानों की परीक्षा ली जाय । उसने जैनों को आश्वस्त करते हुए कहा, "कल इन नवागन्तुक विद्वान की और पाप लोगों की परीक्षा ली जायगी । परीक्षा के अनन्तर ही इस पर आगे विचार किया जायगा।"
दूसरे दिन राजा ने गुप्त रूप से एक विषैले सर्प को घड़े में बन्द करवाकर उस घड़े को एक ओर रख दिया। जब दोनों पक्ष राजसभा में उपस्थित हुए तो राजा सुधन्वा ने घड़ा मंगवा कर उनके समक्ष रखवाते हुए जैनों से और कुमारिल्ल भट्ट से प्रश्न किया कि उस घड़े में क्या है।
जैनों ने इसके लिए समय मांगते हुए राजा से निवेदन किया--"राजन् ! हम इस प्रश्न का उत्तर कल देंगे।" इसके विपरीत कुमारिल्ल ने उसी समय राजा के प्रश्न का उत्तर एक पत्र में लिखा और उसे. दूसरे पत्र में लपेट कर तथा सील लगाकर राजा को समर्पित कर दिया।
तदनन्तर दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान को लौट गये। जैनों ने रात भर अपने आराध्य देव की आराधना की और प्रातःकाल राजसभा में उपस्थित हो राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा -“राजन् ! इस घट में सर्प है।"
राजा ने तत्काल कुमारिल्ल भट्ट द्वारा लिखे गये पत्र को खोलकर पढ़ा तो राजा के आश्चर्य का यह देख कर पारावार न रहा कि उसमें भी वही उत्तर लिखा हुआ था।
दोनों पक्षों के समान उत्तर होने के कारण निर्णय हेतु राजा ने दूसरा प्रश्न किया-"आप लोग बताइये कि क्या इस सर्प के किसी अंग विशेष पर कोई चिह्न है कि नहीं?"
__ जैनों ने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये भी एक दिन की अवधि का समय मांगा। किन्तु कुमारिल्ल भट्ट ने तत्काल ही राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा"राजन् ! इस सर्प के सिर पर पैर के दो चिह्न बने हुए हैं।"
घड़े को खुलवाकर देखा गया तो कुमारिल्ल भट्ट का उत्तर अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ, वास्तव में उस सर्प के सिर पर दो पैरों के निशान थे। जैन लोग ऐसे हतप्रभ हुए कि उन्होंने कुमारिल्ल भट्ट के साथ शास्त्रार्थ करने का साहस ही नहीं किया राजा ने वेदबाह्य जैनों को राजसभा से निकाल कर बाहर किया और अपने राजवंश में वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की। इस घटना के पश्चात् तो किसी भी दर्शन के किसी भी विद्वान् ने कुमारिल्ल भट्ट के साथ शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं किया और इस प्रकार कुमारिल्ल की विजयपताका सर्वत्र फहराने लगी।' १ श्री बलदेव उपाध्याय के "श्री शंकराचार्य"-ग्रन्थ के पृष्ठ ६१ एवं ६२ के आधार पर ।
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