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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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कर्णाटक के राजा सुधन्वा की तो जैनधर्म के प्रति श्रद्धा थी किन्तु उसकी रानी वैदिक धर्म के प्रति प्रगाढ आस्था वाली वैदिक धर्मानुयायिनी थी । वैदिक धर्म की अपने राज्य में इस प्रकार की अवनत दशा देखकर वह बड़ी खिन्न और चिन्तामग्न रहती थी। एक दिन वह राजप्रासाद के अन्त:पुर में एक गवाक्ष में बैठी हुई वैदिक धर्म की ह्रासोन्मुख स्थिति पर चिन्तन कर रही थी। वह परम विदुषी थी। उसके पीड़ित अन्तःकरण से सहसा इस प्रकार के उद्गार उद्गत हो उठे :
"किं करोमि क्व गच्छामि, को वेदानुद्धरिष्यति ?”
अर्थात्-- प्रोह ! अब मैं क्या करू और कहां जाऊं, इन वेदों का उद्धार कौन करेगा?
राजप्रासाद के गवाक्ष के पार्श्वस्थ पथ से संयोगवशात जाते हए कुमारिल्ल भट्ट के कर्णरन्ध्रों में रानी के ये शोकपूर्ण उद्गार गूंज उठे। उन्होंने महारानी को आश्वस्त करने के उद्देश्य से उच्च स्वर में, उसके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा :----
“मा विषीद वरारोहे ! भट्टाचार्योऽस्मि भूतले ।" _अर्थात ...हे राजराजेश्वरी ! आप चिन्ता न करें, अभी तक तो इस धरित्री पर मैं भट्टाचार्य विद्यमान हूं। यह कह कर वे राजसभा में गये।
- श्री बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रन्थ "श्री शंकराचार्य" में आगे लिखा है--- "राजा सुधन्वा स्वयं तो परम आस्तिक थे परन्तु जिस कर्णाटक देश के वे अधिपति थे, वहां जैन धर्म का चिरकाल से बोलबाला था। इनके दरबार में भी जैनियों की प्रभुता बनी हुई थी। कुमारिल्ल ने इस विषम परिस्थिति को देखा कि राजा तो स्वयं वेद धर्म में आस्था रखने वाला है परन्तु उसका दरबार वेदविरोधियों का गढ़ बना हुआ है । इसी को लक्ष्य कर कुमारिल्ल ने कहा :--
"मलिनैश्चेन्न संगस्ते, नीचे काककूल पिक !
श्रु तिदूषकनिह लादैः श्लाघनीयस्तदा भवेः ।।६५।।'' १ अर्थात् -हे राजन् ! तुम वस्तुतः कोकिल हो । यदि मलिन, काले, नीच, वेदों और कर्णरन्ध्रों को दूषित करने वाले इन कौनों से तुम्हारा संसर्ग नहीं होता तो निस्संदेह तुम प्रशंसा के पात्र होते ।
जैनों ने कुमारिल्ल भट्ट के इस कथन को सीधा अपने ऊपर ही कटुतर कटाक्ष अनुभव किया और वे बड़े रुष्ट हुए। राजा सुधन्वा तो मन ही मन इस १ शंकरदिग्विजय, नवकालिदास की उपाधि से भूषित माधव द्वारा रचित सर्ग १, श्लोक
सं.६५।
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