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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ३
वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु वैदिकेतर धर्मों के विरुद्ध अभियान शंकर से वय में लगभग ८० वर्ष बड़े कुमारिल्ल भट्ट ने ईसा की सातवीं शताब्दी के अन्तिम, दशक अथवा आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में प्रारम्भ किया।
कुमारिल्ल भट्ट द्वारा की गयी दिग्विजय के कोई विशेष उल्लेख वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं किन्तु जो भी उल्लेख मिलते हैं, उनसे स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि कुमारिल्ल के समय में भारत के विभिन्न प्रान्तों में, विशेषतः दक्षिण के कर्णाटक आदि प्रान्तों में जैनधर्म का वर्चस्व था और वहां जैनधर्मावलम्बियों की संख्या बहुत बड़ी थी। वहां जैनधर्म राजमान्य, बहुजन सम्मत और लोकप्रिय धर्म था। अपने द्वैताद्वैत (वेदों के अद्वैत और औपनिषदिक द्वैत) सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार में अनेक क्षेत्रों में बहुजन सम्मत और लोकप्रिय जैनधर्म व बौद्धधर्म को मुख्यतः बाधक समझकर अपने समय के अप्रतिम मीमांसकाचार्य कुमारिल्ल भट्ट ने जैनों और बौद्धों के वर्चस्व को समाप्त करने का निश्चय किया।
वैदिक धर्म के पुनरुत्थान और उसकी पुनः प्रतिष्ठा के दृढ़ संकल्प के साथ मीमांसक प्राचार्य सभी वैदिकेतर विद्वानों पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा लिए दिग्विजय के लिए प्रस्थित हुए । शबर स्वामी के मीमांसा भाष्य पर विद्वत्तापूर्ण विशाल वार्तिक की रचना कर भारत के मूर्द्धन्य कहे जाने वाले विद्वन्मण्डल के हृदय पर कुमारिल्ल ने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य की अमिट छाप पहले से ही अंकित कर रखी थी। उन्होंने सर्वप्रथम उत्तरी भारत के वैदिकेतर विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विपुल ख्याति प्राप्त की।
____ तदनन्तर वे दिग्विजय हेतु दक्षिणापथ की ओर बढ़े। शंकर दिग्विजय में कुमारिल्ल का उल्लेख है कि स्थान-स्थान पर वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करते हए भट्ट कुमारिल्ल करर्णाटक प्रदेश के उज्जनी नामक नगर में पहुंचे । उस समय कर्णाटक में सुधन्वा नामक महाराजा राज्य करता था। राजा सुधन्वा बड़ा ही न्यायपरायण राजा था। उसकी राजधानी उज्जैनी में थी।' शंकर दिग्विजय के उल्लेखानुसार वह राजा सुधन्वा अन्तर्मन से तो वेदों पर आस्था रखने वाला था किन्तु जैनियों के पंजे में पड़ कर वह जैन धर्म में आस्था रखने लगा था। "जिस समय कुमारिल्ल भट्ट दिग्विजय करते हुए कर्णाटक में आये उस समय कर्णाटक में बौद्ध धर्म और जैन धर्म का बड़ा बोलबाला था । ज्ञान का भण्डार वेद कूड़े कर्कट के समान फैका जाने लगा था और वेदों के रक्षक ब्राह्मणों की निन्दा होने लगी थी।"२ ' न तो कर्णाटक से उपलब्ध हुए शिलालेखों में और न ही किसी जैन वांग्मय में अद्यावधि कर्णाटक के उज्जयिनी नामक नगर का उल्लेख है और राजा सुधन्वा का नाम भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ है।
-सम्पादक २ "श्री शंकर"-श्री बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, १६५०, पृष्ठ ६१ ।
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