________________
जैन संघ पर दसरा देशव्यापी संकट
यह पहले विस्तारपूर्वक बताया जा चका है कि जैन संघ पर अथवा जैन धर्म पर पहला संकट पल्लवराज कांचिपति महेन्द्रवर्मन प्रथम (ई. सन् लगभग ६०० से ६३०) और मदुरा के शासक सुन्दरपाण्ड्य के शासन काल में आया। जैन संघ पर आया हुया वह पहला संकट केवल तमिल प्रान्त तक ही सीमित रहा।
जैन संघ पर जो दूसरा संकट कुमारिल्ल भट्ट और शंकराचार्य की दिग्विजयों के माध्यम से लगभग ई. सन् ७०० से प्रारम्भ हुआ वह संकट वस्तुतः सुसंगठित, सुनियोजित और देशव्यापी था।
शंकराचार्य ने आर्यधरा के पूर्व छोर से पश्चिम और दक्षिण छोर से उत्तर दिशा के छोर तक दिग्विजय का अभियान चलाकर चारों दिशाओं में चार शंकराचार्य-पीठों की स्थापना कर इस उद्देश्य से सुदृढ़ व्यवस्था की कि इन चारों ही मठों अथवा शंकरपीठों के अधिष्ठाता-अध्यक्ष अपने-अपने पीठ की निर्धारित परिधि में निरन्तर परिभ्रमण करते रहकर शताब्दियों तक ही नहीं अपितु सुदीर्घतर काल तक उनके ब्रह्माद्वैत संज्ञक वैदिक धर्म का प्रचार करते रहें।
इससे इतर किसी भी मान्यता अथवा सिद्धान्त को चाहे वह बौद्ध, जैन, आदि वेदेतर मान्यताएं हों चाहे नैयायिक, सांख्य, मीमांसक आदि द्वैताद्वैत सिद्धान्तों का प्रचार करने वाली वैदिक परम्परा का नाम धराने वाली मान्यताएं हों, उन सभी मान्यताओं में से किसी भी मान्यता को आर्यधरा पर न पनपने दें, यह उनके अद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त का मूलमन्त्र था। उन्होंने कहा :
"ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्म व, नापरः।" ।
अर्थात् -- केवल ब्रह्म ही सत्य है (१), यह दृश्यमान जगत् मिथ्या है (२), जीव कोई पृथकसत्ताक नहीं (३) और जीव ब्रह्म से कदापि, कथमपि, किंचिदपि भिन्न नहीं है (४)।
“तत्त्वमसि''-प्रो आत्मन् ! हे जीव ! तू वही है जो परब्रह्म है, तू ब्रह्म है।
शंकराचार्य द्वारा आर्यधरा की चारों दिशाओं में आज से लगभग ११००, १२०० वर्ष पूर्व स्थापित किये गये वे चारों मठ आज भी विद्यमान हैं एवं शंकराचार्य द्वारा निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के कार्य में येन-केन-प्रकारेण गतिमान हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org