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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
का बोध अपराजित सूरि द्वारा निर्मित विजयोदया नाम की उपरि नामांकित टीकाओं से होता है । इस सम्बन्ध में प्रस्तुत ग्रन्थ के छठे प्रकरण में बड़े विस्तार के साथ प्रकाश डाला जा चुका है।'
___ अपराजितसूरि यापनीय परम्परा के अनेक गणों में से किस गण के आचार्य थे, इनके गुरु कौन थे, इनके पश्चात् इनके पट्टधर आचार्य कौन हुए, इस सम्बन्ध में जैन वांग्मय में अद्यावधि कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है । इस परम्परा के प्राचार्यों की एक दो छोटी मोटी पट्टावलियों, भिन्न-भिन्न काल में हुए अनेक प्राचार्यों, साधुओं, इस परम्परा के अनेक गणों आदि के उल्लेख तो अनेक शिलालेखों में उपलब्ध होते हैं । किन्तु काल क्रमानुसार क्रमबद्ध उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता।
___ इनसे पूर्व विक्रम की पांचवीं छठी शताब्दी में शिवार्य नामक एक महान् आचार्य इस परम्परा में हए थे जिन्होंने कि 'पाराधना' नामक दो हजार एक सौ सत्तर (२१७०) गाथानों के विशाल ग्रन्थ की रचना की थी, जिस पर कि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, अपराजित सूरि ने टीका का निर्माण किया । इनके पश्चाद्वर्ती काल विक्रम की नवमीं शताब्दी में शाकटायन नामक एक महान वैयाकरण एवं ग्रन्थकार प्राचार्य हुए हैं। इनका परिचय भी आगे यथास्थान दिया जायगा।
शाकटायन ने अपने शब्दानुशासन की अमोघवृत्ति में 'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' इस पद से सर्वगुप्त नाम के किसी प्राचार्य को सबसे बड़ा व्याख्याता बताया है। वर्तमान में उपलब्ध जैन वांग्मय में सर्वगुप्त नाम के किसी व्याख्याकार, वत्तिकार अथवा टीकाकार का कोई नाम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे अनुभान किया जाता है कि अपराजित सरि से कतिपय शताब्दियों पूर्व यापनीय परम्परा में सर्व गुप्त नाम के कोई महान् व्याख्याता पूर्वाचार्य हुए हों।
यापनीय आचार्य शिवार्य ने सर्वगुप्त नाम के प्राचार्य की सेवा में रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया था। इस प्रकार का उल्लेख सम्भवत: मूलाराधना में अथवा अन्यत्र कहीं देखने में आया है। इस प्रकार यापनीय परम्परा के केवल तीन ग्रन्थकारों के ही नामों का उल्लेख और उनके ग्रन्थ आज तक उपलब्ध हो सके हैं।
' प्रस्तुत ग्रन्थ (जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग--३) का पृष्ठ २१३-२१४
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