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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
शास्त्रार्थ के निर्णायकों ने अकलंक को विजयी और बौद्धाचार्य को पराजित घोषित किया । इससे जैन धर्म की सर्वत्र महती प्रभावना हुई ।
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जैन वांग्मय के कतिपय कथानकों में किंवदन्ती के आधार पर इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि राजा हिमशीतल की राज्यसभा में हुए शास्त्रार्थ में बौद्धाचार्य संघश्री के पराजित हो जाने पर आचार्य अकलंक ने अपने लघु भ्राता निकलंक की बौद्धों द्वारा की गई हत्या के प्रतिशोध की भावना से अपने प्रभाव में ये हुए राजा हिमशीतल से बौद्धों का सामूहिक संहार करवाया । किन्तु तत्कालीन सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ भाव से चिन्तन-मनन करने पर यही सिद्ध होता है कि इस प्रकार के उल्लेखों का एक किंवदन्ती से अधिक कोई मूल्य नहीं ।
-निकलंक का बौद्ध विद्यापीठ में छद्म रूप से अध्ययन, रहस्योद्घाटन, दोनों भाइयों का पलायन, निकलंक और धोबी की बौद्ध सैनिकों द्वारा हत्या, अकलंक का उस संकट से बच निकलना, अकलंक का बौद्धाचार्य से ६ माह तक शास्त्रार्थ, चक्रेश्वरी का स्मरण, चक्रेश्वरी द्वारा घट सम्बन्धी रहस्य का प्रकाशन, अकलंक द्वारा - "कल अन्त में आपने क्या कहा था, कृपया पुनः दोहराइएगा" - इस वाक्य के माध्यम से बीते कल की बात पुनः कहने का बौद्धाचार्य से निवेदन, बौद्धाचार्य की ओर से किसी उत्तर का प्राप्त न होना, अकलंक का पर्दे को हटा कर अन्दर प्रवेश तथा पादप्रहार से उस घट का विस्फोटन, जिसमें बैठी तारा देवी शास्त्रार्थ कर रही थी, और अन्ततोगत्वा बौद्धाचार्य की पराजय और अकलंक की विजय । यह पूरा का पूरा विवरण प्राचार्य हरिभद्रसूरि के हंस और परमहंस नामक शिष्यों के कथानक से मिलता-जुलता है ।'
यशस्वी विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया आदि ने प्रमाण पुरस्सर अकलंक का समय ई० सन् ७२० से ७८० के बीच का निर्धारित किया है, यह पहले बताया जा चुका है । इस अभिमत की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि अकलंक ने राष्ट्रकूट वंशीय राजा साहसतुङ्ग की राजसभा में उपस्थित हो उसके साहस की प्रशंसा के साथ-साथ विजय अभियान में उसके साथ अपनी तुलना की थी। साहसतुङ्ग के अपर नाम दन्तिदुर्ग, दन्तिवर्मा, खड्गावलोक, पृथ्वीवल्लभ और वैर मेघ भी प्रसिद्ध थे । उसका नाम वस्तुतः दन्तिदुर्ग था और साहसतुङ्ग उसका विरुद था । साहसतु रंग का समय ई० सन् ७३० से ७५७ तक का माना गया है । कलंक का उससे साक्षात्कार हुआ था, इससे साहसतुंग और प्रकलंक समकालीन होने के कारण अकलंक का समय भी ई० सन् ७३० से ७५७ के आसपास का ही निश्चित होता है |
१ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ में ही प्राचार्य हरिभद्र का प्रकरण ।
२ देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ २८६, २६०
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