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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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धर्म छिपा कर बौद्ध विद्यापीठ में प्रवेश प्राप्त कर लिया और वे वहां बड़ी निष्ठा के साथ बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। उन दोनों भाइयों ने थोड़े समय में ही बौद्ध शास्त्रों में पारंगतता प्राप्त कर ली।
एक दिन उनके प्राचार्य जब उन्हें अनेकान्त के खण्डन का पाठ पढ़ा रहे थे, तो पूर्व पक्ष का पाठ कुछ त्रुटिपूर्ण रह जाने के कारण स्वयं प्राचार्य की समझ में नहीं प्रा. रहा था । अतः उन्होंने उस दिन वह पाठ पढ़ाना स्थगित कर दिया। दोनों भाइयों ने बौद्धाचार्य दिग्नाग के अनेकांत के खण्डन के अशुद्ध पूर्व पक्ष के पाठ को रात्रि के समय शुद्ध कर दिया। प्रातःकाल अध्ययन कक्ष में लिखे पाठ पर जब आचार्य की दृष्टि पड़ी तो वे शुद्ध पाठ को देखकर स्तब्ध रह गये। उन्हें विश्वास हो गया था कि उनके विद्यार्थियों में से निश्चित रूप से कोई न कोई जैन शिक्षार्थी छद्म वेष में उनके विद्यापीठ में प्रविष्ट हो गया है। उन्होंने जैन विद्यार्थियों को खोज निकालने का निश्चय किया।
प्राचार्य हरिभद्र के हंस और परमहंस नामक दोनों शिष्यों को जिन उपायों से बौद्धाचार्य ने खोज निकाला था, उसी प्रकार के उपायों को अकलंक और निकलंक को खोज निकालने के लिये भी उपयोग में लाया गया ।
अपने शिष्यों में छद्मवेषधारी जैन कौन आ गया है, इस बात का पता लगाने के लिये बौद्धाचार्य ने मार्ग में ऐसे स्थान पर जिनेन्द्र की मूर्ति रख दी जहां से अनिवार्य रूपेण प्रत्येक शिक्षार्थी को आवागमन करना ही पड़ता था। अकलंक और निकलंक ने उस मूर्ति पर धागा डाल कर उसे अन्य छात्रों की ही तरह लांघ लिया । उस परीक्षा में अपने अभीष्ट की सिद्धि न हई देख बोद्धाचार्य ने एक दूसरा अचुक उपाय खोज निकाला । मध्य रात्रि में जब सब शिक्षार्थी निश्शंक प्रगाढ निद्रा में सो रहे थे, उस समय बौद्धाचार्य ने कांस्यपात्रों से भरा एक बोग बड़ी ऊंचाई से छात्रों के शयनकक्ष में मध्य भाग के रिक्त स्थान पर गिराया। कांस्यपात्रों के गिरने से विद्युत की कड़कड़ाहट के समान हुए कर्णभेदी भीषण निघोप को सुन कर सभी शिक्षार्थी तत्काल जाग उठे । अपने ऊपर प्राणापहारी घोर संकट पाया समझ सभी छात्रों ने अपने-अपने इष्ट देव का सस्वर स्मरण किया। अकलंक और निकलंक दोनों भाइयों के मुख से भी सहसा "गणमो अरिहंतारणं, गमो सिद्धारणं आदि पंच-परमेष्टि-नमस्कार मन्त्र" के स्वर गूंज उठे । परीक्षा हेतु सजग प्रहरी के समान वहां खड़े बौद्धाचार्य ने उन दोनों भाइयों को तत्काल पकड़ कर विद्यापीठ के एकांत कक्ष में बन्दी बनाकर रख दिया ।
रात्रि की निस्तब्धता में अकलंक और निकलंक दोनों भाई एक छत्र को पकड़ कर विद्यापीठ के ऊपरी कक्ष मे कूद पड़े । बड़ी ही कुशलतापूर्वक उस छत्र को कभी तोच्छी तो कभी सीधा रखते हए वे दोनों भाई बौद्ध विद्यापीठ क्षेत्र से बाहर
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