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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती आचार्य ]
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पर तिलक करना आदि आदि कार्यकलाप श्रमरणों द्वारा, आचार्यों द्वारा बड़े-बड़े समारोहों के साथ किये जाते थे ।
कुलगुरुत्रों की मर्यादा -निर्धारण विषयक इस लिखत से यह स्पष्ट हो जाता है कि चैत्यवासी परम्परा द्वारा अपनाये गये शिथिलाचार और बाह्याडम्बर पूर्ण अनुष्ठानों, प्रयोजनों एवं क्रिया-कलापों से जैन धर्म तथा श्रमण परम्परा में मूल विशुद्ध स्वरूप की रक्षा के उद्देश्य से जिस सुविहित परम्परा का प्रादुर्भाव किया गया था, उस सुविहित परम्परा पर भी वीर निर्वाण की १२वीं - १३वीं शताब्दी में चैत्यवासियों द्वारा अपनाये गये शिथिलाचार, बाह्याडम्बर और आगम विरोधी तथाकथित धार्मिक आयोजनों का पर्याप्त प्रभाव पड़ चुका था ।
इन कुलगुरु
ने इस प्रकार परिग्रह रखना तो प्रारम्भ कर दिया और इनका परिग्रह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया, किन्तु इस समय तक इन्होंने दार परिग्रह वीकार नहीं किया था। आगे चलकर ये कुलगुरु गृहस्थ बन गये ।
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