SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३० ] । जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ बनाता है, श्रमणत्व ग्रहण करने के लिये तैयार करता है तो उस दशा में उस विरक्त व्यक्ति के कुलगुरु की आज्ञा लेकर ही उसे दीक्षा दी जाय। यदि उसमें कुलगुरु की आज्ञा न मिले तो उसे दीक्षित नहीं किया जाय । इसी भांति प्रतिष्ठा, संधवी पद का तिलक और व्रत प्रदान आदि कार्य भी अपने-अपने कुलगुरु के हाथ से हो सम्पन्न करवाये जायें। ऐसा प्रसंग उपस्थित होने पर कि जब कुलगुरु कहीं अन्यत्र दूरस्थ प्रदेश में गये हुए हों तो उन्हें आमन्त्रित कर बुलाया जाय । इस प्रकार बुलाने पर भी यदि कुलगुरु नहीं आवें तो उस दशा में वह गृहस्थ किसी दूसरे गच्छ के प्राचार्य अथवा गुरु के हाथों प्रतिष्ठादि उन कार्यों को सम्पन्न करवाले। इन कार्यों के सम्पन्न होने पर प्रतिष्ठा आदि कराने वाले अन्य गच्छ के प्राचार्य ही उस समय से उस श्रावक के कुलगुरु माने जाएंगे और भविष्य में प्रतिष्ठा आदि का प्रसंग उपस्थित होने पर उन नये कुलगुरु बने हुए आचार्य अथवा गुरु से ही प्रतिष्ठा आदि कार्य करवाये जाएंगे।" इस प्रकार मर्यादाओं के सम्बन्ध में सर्वसम्मत निर्णय से कुलगुरुओं की मर्यादाएं बांधी गई और उन्हें अभिलेख के रूप में लिखा गया। उस लिखत पर अथवा मर्यादा पत्र पर नागेन्द्र गच्छीय श्री (१) सोमप्रभाचार्य, (२) उपकेशगच्छीय श्री सिद्धसूरि, (३.) निवृत्ति गच्छीय श्री महेन्द्र सूरि, (४) विद्याघर गच्छीय श्री हरियाणन्द सूरि, (५) ब्राह्मण गच्छीय श्री जज्जग सूरि, (६) सांडेर गच्छीय श्री ईश्वर सूरि, तथा (७) वृहद् गच्छीय श्री उदयभद्र सूरि प्रभृति चौरासी गच्छों के नायकों ने हस्ताक्षर किये। राजा भाण ने साक्षी के रूप में उस लिखत पर अपने हस्ताक्षर किये। यह अभिलेख वर्द्धमानपुर में वि. सं. ७७५ (वीर नि. सं. १२४५) की चैत्र शुक्ला सप्तमी के दिन लिखा एवं हस्ताक्षरित किया गया। विक्रम की ८वीं शताब्दी में श्रमणों में शिथिलाचार किस सीमा तक बढ़ चुका था इस पर इस लिखत से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। अपने-अपने श्रावक को अपनी-अपनी प्राचार्य परम्परा का अनुयायी बनाये रखने के लिये सतत प्रयत्नशील ही नहीं, अपितु विवाद तक के लिये कटिबद्ध रहना, एवं व्यापारी की तरह बहियां रख कर उनमें अपने-अपने श्रावकों, उनके परिवार के सभी सदस्यों के नाम लिखना, दूसरे गच्छ के अनुयायी श्रावकों को अपने गच्छ का अनुयायी बनाने का प्रयास करना, ममत्व भाव से श्रावक वर्ग को अपने गच्छ में ही सुदढ़ रखने के लिये विवाद में उलझना और प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा आदि के प्रसंग पर श्रावकों के भाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy