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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ५२६ का तिलक मैं करूंगा क्योंकि मेरे उपदेश से ही इस संघ यात्रा का आयोजन किया गया है।"
- इस पर प्राचार्य सोमप्रभ और प्राचार्य उदयप्रभ के बीच परस्पर विवाद उठ खड़ा हुआ । राजा भारण ने विभिन्न संघों के प्राचार्यों को मंत्रणा हेतु एक स्थान पर एकत्रित किया और उनसे पूछा कि वस्तुत: संघवी पद का तिलक करने का अधिकार आचार्य श्री सोमप्रभ का है या प्राचार्य श्री उदयप्रभ का ? सभी आचार्यों ने मन्त्रणा कर निर्णय दिया कि तिलक करने का अधिकार राजा के कुल परम्परागत कुलगुरु प्राचार्य उदयप्रभ का है, न कि संघ यात्रार्थ प्रतिबोध अथवा प्रेरणा देने वाले आचार्य सोमप्रभ सूरि का।
विभिन्न गच्छों के प्राचार्यों द्वारा दिये गये उस निर्णय को सभी ने शिरोधार्य किया और आचार्य उदयप्रभ ने राजा भाण के भाल पर संघवी का तिलक किया। संघवी पद पर राजा भारण के अभिषिक्त किये जाने पर वह विशाल संघ तीर्थयात्रार्थ प्रस्थित हुआ।
कुलगुरु के प्रश्न को लेकर भविष्य में कभी किसी प्रकार का कोई विवाद खड़ा न हो इस उद्देश्य से कुलगुरुपों की मर्यादाएं सदा के लिए निर्धारित कर देने का राजा भाग ने निश्चय किया। इस सम्बन्ध में राजा भारण, जहां जहां भी संघ का पड़ाव होता वहां वहां संघ के साथ आये हुए सभी आचार्यों से मन्त्रणा एवं विचार विनिमय करता । इस प्रकार अनेक दिनों के विचार-विनिमय के पश्चात् राजा भारण
और सभी संघों के प्राचार्य इस विषय में एक निर्णय पर पहुंचे और उन्होंने कुलगुरुत्रों के अधिकारों की निम्नलिखित मर्यादा निर्धारित की।
"जो कोई प्राचार्य जिस किसी भी व्यक्ति को प्रतिबोध देगा, वही प्राचार्य और उसके पट्टधर उस प्रतिबोधित व्यक्ति के सम्पूर्ण परिवार के पीढी प्रपीढ़ियों तक कुलगुरु माने जायेंगे। प्रत्येक कुलगुरु स्वयं द्वारा अथता अपने शिष्य प्रशिष्यों एवं गुरु-प्रगुरुपों द्वारा प्रतिबोधित श्रावकों के नाम तथा उसके परिवार के सभी सदस्यों के नाम अपनी बहो में लिखेगा। इस प्रकार कुलगुरुपों द्वारा अपनी-अपनी बहियों में अपने-अपने श्रावकों के नाम लिख लिये जाने की प्रवृत्ति से पर देश में रहने वाले श्रावकों के सम्बन्ध में भी सब लोगों को यह विश्वास रहेगा एवं यह ज्ञात रहेगा कि अमुक परिवार-अमुक व्यक्ति अमुक गुरु का श्रावक है।
इसी प्रकार एक गच्छ का प्राचार्य किसी दूसरे गच्छ के व्यक्ति को प्रतिबोध देकर श्रमण धर्म की दीक्षा लेने के लिये कृत-संकल्प
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