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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
प्रारम्भ हो गया। भिन्नमाल राज्य में हुए इस गृह कलह का लाभ उठाकर लोहियारण के राजा भाण ने भिन्नमाल के राजसिंहासन पर भी अधिकार कर लिया। लोहियारण और भिन्नमाल इन दोनों राज्यों के परस्पर विलय के कारण राजा भारण एक शक्तिशाली शासक के रूप में उभरा। उसने शौर्य एवं साहस के साथ भिन्नमाल राज्य का क्रमशः विस्तार करके गंगानदी के तट तक उसकी सीमाएं स्थापित की।
ऊपर यह बताया जा चुका है कि भिन्नमाल के राजा सामन्त का कनिष्ठ पुत्र विजयन्त वि. सं. ७२३ में वेणातटवर्ती शंखेश्वर ग्राम में जैन धर्म का अनुयायी बन गया था। उस विजयन्त के पश्चात् भारण तक लोहियारण के जितने राजा हुए वे सभी जैनधर्म के अनुयायी हुए। राजा मारण भी जैन धर्म का दृढ़ अनुयायी एवं परम श्रद्धालु श्रावक था। उस समय के जैन संघ में राजा भारग की सर्वाग्रणी प्रमुख श्रावक के रूप में गणना की जाती थी।
वि. सं. ७७५ (वीर नि. सं. १२४५) में वहद गच्छ के प्राचार्य श्री सोमप्रभ का भिन्नमाल में आगमन हुआ। उनके उपदेश से राजा जयन्त की मृत्यु के पश्चात् राज परिवार में जो कलह उत्पत्र हुआ था, वह शान्त हो गया। राजा भारण ने श्री सोम प्रभाचार्य से उस वर्ष भिन्नमाल में ही चातुर्मासावास करने की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। समस्त श्री संघ तथा संघाग्रणी राजा भाण की प्रार्थना स्वीकार कर वीर नि. सं. १२४५ में सोमप्रभाचार्य ने भिन्नमाल नगर में चातुर्मासावास किया। राजा और प्रजा ने चातुर्मासावधि में नियमित रूप से प्राचार्य श्री के वचनामृत का पान करते हुए धार्मिक कार्य-कलापों में गहरी अभिरुचि ली।
उस समय तक सदल बल संघ के साथ तीर्थयात्राएं करने का प्रचलन पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था। सोमप्रभ सूरि के उपदेश से भिन्नमाल के चतुर्विध संघ ने सर्वसम्मति से विशाल संघ के साथ शत्रुजय तथा गिरनार की यात्रा करने का निश्चय किया । भिन्नमाल के श्री संघ ने बहतगच्छीय प्राचार्य श्री सोमप्रभ और अन्यान्य गच्छों के अनेक प्राचार्यों को तीर्थ यात्रा के लिये उस विशाल यात्रा संघ में सम्मिलित होने की प्रार्थना की। उस समय राजा भाण ने कुल परम्परा से चले आ रहे कुलगुरु उदयप्रभ सूरि को भी उस संघ यात्रा में सम्मिलित होने के लिए प्रामत्रित किया । उम मंघ यात्रा में सम्मिलित होने के लिये चौरासी गच्छों के प्राचार्य, साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविकागण भिन्नमाल में एकत्रित हुए। भाण राजा के उस संघ में ७००० रथ, १२५०० घोड़े, १००११ हाथी, ७००० पालकियां, २५००० ऊंट, ५००० माल ढोने के गाडे और ११००० बैलगाड़ियां सुसज्जित की गई।
राजा भाण को संघवी पद पर अभिषिक्त करने के समय कुलगुरु उदयप्रभ सूरि राजा भाण के तिलक करने के लिए उद्यत हुए । उस समय राजा भाण के संसारी पक्ष के पितृव्य (चाचा) सोमप्रभ सूरि ने कहा "राजा भाण के संघवी पद
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