________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ५२५
स्वयं द्वारा रचित उन लगभग १५०० से भी अधिक शास्त्रों की टीकात्रों तथा ग्रन्थों का देश के कौने-कौने में किस प्रकार से प्रचार-प्रसार किया जाय वे इस विचार में निरत रहने लगे ।
एक दिन उन्होंने कार्पासिक नामक एक व्यक्ति को देखा जिसके हृदय में जिनशासन के प्रति थोड़ा प्रेम अवशिष्ट रह गया था । उसको देखते ही शुभ शकुन हुए । निमित्त ज्ञान से प्राचार्य हरिभद्र जान गये कि इसी व्यक्ति के माध्यम से उनकी उन सहस्रों महत्वपूर्ण धर्म रचनाओं का देश में चारों ओर प्रसार होने वाला है ।
यह जानकर उन्होंने उस कार्पासिक वणिक् से प्रकट में कहा :- "जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये अधिकाधिक संख्या में धर्मग्रन्थों की, सुन्दर कृतियों की प्रतियां लिखवा कर और उन्हें श्रमण श्रमरणी वर्ग को दान देकर तुम अपूर्व पुण्य का अर्जन करो। तुम्हें इससे इतना पुण्य होगा कि जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते । "
इस पर वह इस कार्य को करने के लिये सहर्ष समुद्यत हो गया । आचार्य हरिभद्र ने उससे फिर कहा :-- “ आज से तीन दिन पश्चात् दूसरे देश के व्यापारियों का एक बहुत बड़ा समूह तुम्हारे नगर के बाहर आवेगा । उनके पास जितना भी जैसा भी क्रयाक हो वह तुम क्रय कर लेना । उस क्रयाक से तुम देश के एक माने हुए प्रमुख ऋद्धिवन्त श्रीमन्त बन जाओगे ।”
J
श्रेष्ठी कार्पासिक ने ग्रक्षरशः आचार्य देव के कथन का परिपालन किया । वह विपुल ऋद्धि का स्वामी बन गया । उसने आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित सभी धर्मग्रन्थों को लिपिकारों से लिखवा लिखवा कर उन्हें देश के कौन-कौने में मरण श्रमणियों में वितरित किया। उसने अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण भी करवाया । आचार्य हरिभद्र ने कार्पासिक श्रेष्ठी की भांति ही अन्य भव्यों को प्रबुद्ध कर उनके माध्यम से जिनशासन की प्रभावना के अनेकों कार्य करवाये ।
आचार्य हरिभद्र सूरि को एक अति प्राचीन जीर्ण-शीरणं स्थान-स्थान पर दीमकों द्वारा खाई हुई महानिशीथ शास्त्र की प्रति मिली। उनके समय में उस प्रति के अतिरिक्त महानिशीथ की कोई अन्य प्रति कहीं भी उपलब्ध नहीं थी । आचार्य हरिभद्र सूरि ने अहर्निश अथक् श्रम करते हुए अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य एवं प्रबल मति वैभव के बल पर उस महानिशीथ शास्त्र ग्रन्थ का उद्धार किया । रिक्त स्थानों पंक्तियों पत्रों आदि को पूर्वापर प्रसंग के अनुसार पुनर्रचना करते हुए महानिशीथ मूत्र का कुछ पुनलग्वन भी किया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org