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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्त्ती प्राचार्य ]
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उसे वैसे ही आसानी से पराजित करके शर्त के अनुसार उसका प्रारणान्त करवा दूंगा ।" यह विचार कर बौद्धाचार्य ने बिना देवी का स्मरण किये ही हरिभद्र के साथ शास्त्रार्थ प्रारम्भ करते हुए बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्षणिकवाद को अपने पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया । आचार्य हरिभद्र ने बौद्धाचार्य की युक्तियों को खंडित विखंडित करते हुए अपनी अकाट्य युक्तियों से कुछ ही क्षणों में निरुत्तर एवं पराजित कर दिया ।
'बौद्धाचार्य पराजित हो गया ।' सभ्यों के इस निर्णय को सुनते ही बौद्धाचार्य को शर्त के अनुसार प्रतप्त तेल के कड़ाह में कूदकर अपने प्राण देने पड़े। वहां उपस्थित कई बौद्ध विद्वान् वाद के लिये एक के बाद एक हरिभद्र के समक्ष उपस्थित हुए और हरिभद्र से पराजित हो जाने पर शर्त के अनुसार उन्होंने भी प्रतप्त तेल के कड़ाह में कूदकर अपने प्रारणान्त कर लिये ।
अन्ततोगत्वा पीछे बचे हुए बौद्ध विद्वानों में निराशा छा गई और वे सभी अपनी अधिष्ठात्री देवी को कोसने लगे । देवी प्रकट होकर कहने लगी- " मैं तुम्हारे कटु वचनों से किंचितमात्र भी रुष्ट नहीं हूं । किन्तु एक बात जो मैं तुम्हें कहना चाहती हूं उसे ध्यान से सुनो। तुम्हारे सिद्धान्तों का अध्ययन करने की उत्कट इच्छा से जो दो किशोर बड़े दूर देश से तुम्हारे यहाँ आये थे, उनकी ज्ञान की भूख इतनी तीव्र थी कि इसके लिये तुम्हारे द्वारा बाध्य किये जाने पर अपने आराध्य जिनेश्वर के सिर पर पैर रखने जैसे घोर पाप कार्य करने में भी संकोच नहीं किया । हालांकि इसमें कुछ चतुराई से उन्होंने काम लिया । न्यायमार्ग के पथिक वे दोनों मुनि जब अपने प्राणों की रक्षा के लिये पलायन कर रहे थे उस वक्त उन भागते हुए दोनों भाइयों में से एक को तुमने नृशंसतापूर्वक मार डाला था। उसी पाप का फल अब तुम लोग भोग रहे हो। इसलिये अब शोक को दूर कर शीघ्र ही अपने अपने स्थान को लौट जाओ। इस जैनाचार्य से बाद में मत पड़ो ।
इतना कहकर देवी तिरोहित हो गई । वे बचे हुए बौद्ध विद्वान् भी अपने अपने स्थान को लौट गये ।
बौद्धों के प्रतप्त तेलकुण्ड में कूदने की घटना के सम्बन्ध में कुछ लेखक यह मानते हैं कि हरिभद्र सूरि ने अपने मन्त्रबल से बौद्धों को आकृष्ट करके उन्होंने उन्हें हुए 'तेल के 'कुण्ड में डाला ।
तपे
जिन भट्ट सूरि ने अपने शिष्य हरिभद्र के इस अद्भुत प्रकोप के सम्बन्ध में अपने शिष्यजनों से जब सुना तो वे स्वयं चलकर सुरपाल के पास आये । उन्होंने धीर गम्भीर मधुर वचनों से हरिभद्र को समझा-बुझाकर शान्त किया । " मैंने शिष्यों के मोह में पड़कर इस प्रकारे का घोर दुष्कर्म किया है" ऐसा समझकर परम गुरु भक्त हरिभद्र ने अपने पाप की शुद्धि के लिये गुरु के आदेशानुसार घोर तपश्चरण प्रारम्भ
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