________________
५२२ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
अपार है। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हए उन अजेय बौद्धों को किसी प्रपंच से ही जीता जा सकता है। ऐसा प्रपंच तो मैं रचना जानता हूं जिससे वे स्वतः ही नष्ट हो जायें। पर इसके साथ एक बात मैं आपसे जानना चाहता हूं कि क्या आप में कोई ऐसी अद्भुत शक्ति है कि जिससे आप वाद में उनसे पराजित नहीं हो सको। वाद में उनके विद्वानों को जीत सको।"
प्राचार्य हरिभद्र ने कहा :-"राजन अभी तो इस धरती पर मुझे शास्त्रार्थ में जीतने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। शासनाधिष्ठात्री अम्बिकादेवी अहर्निश मेरे पार्श्व में रहती है।"
हरिभद्र की बात सुनकर राजा सूरपाल के आनन्द का पारावार न रहा। उसने तत्काल एक अतीव वाक्पट, प्रपंचरचना में प्रवीण और विचक्षण बुद्धिशाली दूत को बौद्धों की राजधानी में भेजा। उस दूत ने बौद्ध गुरु के समक्ष उपस्थित होकर निवेदन किया कि साक्षात् सरस्वती स्वरूप गुरुवर ! मेरे राजा सूरपाल ने प्रगाढ़ श्रद्धाभक्ति के साथ प्रापको प्रणाम करते हुए यह प्रार्थना की है :-"मेरे नगर में एक विद्वान् पाया है जो अपने आपको अजेय उद्भटवादी कहता है । आप जैसे त्रिभुवन विख्यात विद्वान् के समक्ष उस गर्वोन्मत्त विद्वान् का अपने आपको वादी के रूप में अभिहित करना हमें सहन नहीं होता । वह आपके द्वारा विजित हो जाने पर स्वयमेव निधन को प्राप्त हो जाय, इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिये।"
__ वह बौद्ध आचार्य बोला :-"मैं उसे क्षण भर में ही पराजित कर दूंगा। किन्तु तुम यह बताओ कि क्या वह वादी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने को उद्यत है कि यदि वह मुझ से वाद में पराजित हया तो स्वयमेव निर्धारित रीति से अपना प्राणान्त कर लेगा?"
__ वचन चातुरी में निष्णात दूत ने कहा :-"मैं इसके लिए उसे राजी कर लगा। मैं अपनी वाक्पटुता से असम्भव को भी सम्भव बनाने की क्षमता रखता हूं। आप तो बस इतना प्रतिज्ञा-पत्र भर दीजिये कि शास्त्रार्थ में जो भी पराजित हो जायगा वह प्रतप्त तेल से भरे हुए कडाह में कूदकर अपना प्राणान्त कर लेगा।"
बौद्धाचार्य वांछित प्रतिज्ञा पत्र भरने को राजी हो गये। दो-चार दिनों के पश्चात् बौद्धाचार्य प्रति विशाल सेवक समूह के साथ राजा सूरपाल की सभा में पहुंचे और वांछित प्रतिज्ञा-पत्र भरकर हरिभद्र सूरि के साथ शास्त्रार्थ करना प्रारम्भ किया।
बौद्धाचार्य ने मन ही मन सोचा-"इस साधारण जैनवादी के साथ वाद करने के लिये अपनी अधिष्ठात्री देवी को स्मरण करने का क्या प्रयोजन है क्योंकि वैसे भी वह पराजित शत्रु का तत्काल प्राणान्त नहीं करती। मैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org