SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ५२१ बौद्ध सुभट उस रजक को वहीं छोड़ उसके द्वारा बताई हुई दिशा की ओर दौड़ पड़े और कुछ ही क्षरणों में वे परमहंस की प्रांखों से प्रोझल हो गये । परमहंस भी जिस दिशा में बौद्ध सुभट गये थे उससे भिन्न दिशा में भागने लगा । अनेक दिनों तक निरन्तर भागते हुए परमहंस अन्ततोगत्वा एक दिन अपने स्थान चित्रकूट नगर में पहुंचा । गुरुचरणों की सेवा में उपस्थित होते ही अपना मस्तक गुरुचरणों पर रखते हुए उसने सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ सहोदर और स्वयं द्वारा गुरु आज्ञा के प्रतिकूल किये गये अपराध के लिये क्षमायाचना करते हुए" तन्मे मिथ्या भवतु दुष्कृतम् " का अन्तर्मन से उच्चारण कर अपने दुष्कृत की शुद्धि की । तदनंतर परमहंस ने अथ से इति तक सारे घटनाचक्र को यथावत् अपने गुरु को सुनाया । परमहंस ज्यों ही अपने गुरु के समक्ष अपने ज्येष्ठ बन्धु की मृत्यु का वृतान्त सुना रहा था कि उसी समय उस पर हृदयाघात हुआ और वह निष्प्राण हो गुरु चरणों पर लुढ़क गया । प्राचार्य हरिभद्र सूरि को अपने प्रभावक एवं मेधावी शिष्यों के आकस्मिक अवसान पर बड़ा दुख हुआ । उनके मुंह से सहसा अवसादपूर्ण वाक्य निकल पड़े "यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है कि इन होनहार यशस्वी कुल में उत्पन्न हुए जिनशासन प्रभावक मेरे दोनों योग्य और विनीत शिष्यों का इस प्रकार असमय में ही अवसान हो गया । क्या मेरे योग है कि मैं शिष्य सम्पत्ति विहीन ही रहूंगा ? ” अपने सुयोग्य शिष्यों की वियोगाग्नि से सन्तप्त हरिभद्र सूरि के हृदय में सहसा बौद्धों पर क्रोध उग्र रूप धारण कर गया । वे सोचने लगे :- "बौद्धों द्वारा किये गये इस नृशंस अपराध का यदि मैंने प्रतिशोध नहीं ले लिया तो अन्तिम समय तक यह शल्य मेरे हृदय में त्रिशूल के समान खटकता रहेगा ।" -- इस प्रकार प्रतिशोध लेने का दृढ संकल्प करके हरिभद्र बिना अपने गुरु को पूछे अपने उपाश्रय स्थल से चल पड़े । वे सीधे राजा सूरपाल के पास पहुंचे । उन्होंने राजा को श्राशीष देते हुए कहा :-- "हे शरणागत प्रतिपाल ! नरपति ! तुमने परमहंस की रक्षा के लिये जो साहस दिखाया है उसकी शब्दों द्वारा प्रशंसा नहीं की जा सकती । यह आप ही का प्रशंसनीय अनुपम साहस था कि अपार सैन्यबल के घनी बौद्धराज की किंचित्मात्र भी परवाह किये बिना आपने अपने शरणागत की रक्षा की। मेरे प्राणप्रिय निरपराध शिष्यों के साथ जो अमानवीय व्यवहार इन बौद्धों द्वारा किया गया है उसके प्रतिकार के लिए मैं समस्त बौद्धों को पराजित करना चाहता हूं।" राजा सूरपाल ने कहा :- "महात्मन् ! जिस प्रकार आप उन्हें जीतना चाहते हैं उसी प्रकार मेरी भी उनको पराजित करने की उत्कट इच्छा है । परन्तु वे लोग बड़े ही प्रपंची कुटिल और छल छद्म से भरे हुए हैं। उनका सैन्यबल भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy