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________________ ५२० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ को चूणित-विचूरिणत करने के अनन्तर परमहंस ने घनरव सम गम्भीर स्वर में कहा :-"ए नराधम बौद्धों ! दम्भपूर्ण वाद मुद्रा में जो अब तक बोल रहा था, उसे यहां सम्मुख लायो।" राजा सूरपाल को उन बौद्धों के इस छल-छद्म को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । वह बड़ा क्रोधित भी हुआ । उसने बौद्ध सैनिकों के नायक एवं बौद्ध विद्वानों को सम्बोधित करते हुए कहा :---"तुम शत्रु भाव से इस महा मुनि परमहंस का अन्यायपूर्वक वध करने के लिये कृत संकल्प प्रतीत होते हो। पर न्यायपूर्ण विजय का धनी, एवं प्राणी मात्र से प्रशंसा प्राप्त करने योग्य साधु पुरुष क्या वध्य होता है ? अब यदि तुम अपनी इस दुरभिसन्धि को छोड़ने के लिये उद्यत नहीं हो तो सावधान होकर सुन लो कि मैं इसे कभी सहन नहीं करूंगा। तुम्हारी शर्त के अनुसार तुम वाद में हार चके हो। अब तो तुम मुझे युद्ध में पराजित करके ही इसे ले जा सकते हो ।” पर विरोधी के अपार सैन्य बल को देखकर राजा ने अांख के इशारे से परमहंस को वहां से भाग जाने का संकेत किया एवं उसे एक तीव्र चाल से दौड़ने वाला घोड़ा दे दिया। राजा के संकेतानुसार परमहंस ने बड़ी तीव्र गति से वहां से पलायन किया। पलायन करते हुए उसने नगर के बाहर एक धोबी को देखा। धोबी के पास के वस्त्रों के गट्ठरों में से उसने रजक योग्य एक दो वस्त्र लेकर अपना वेष परिवर्तन किया । परमहंस स्वयं तो रजक बन गया और उस धोबी को अपने वस्त्र पहनाकर कहा-"तुम मेरे इस घोड़े पर बैठ कर जितनी द्रुतगति से भाग सको, भाग जाओ। अन्यथा तुम्हारे खून के प्यासे ये बौद्ध सैनिक जो पीछे-पीछे आ रहे हैं, तुम्हें देखते ही मौत के घाट उतार देंगे।" धोबी ने तत्काल परमहंस के कपड़े पहने और उसी के घोड़े पर बैठकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए विकट अटवी की ओर बड़ी ही द्रुत गति से भाग गया । इधर परमहंस पास के ही एक सरोवर में कपड़े धोने में तल्लीन हो गया। थोड़ी ही देर में बौद्ध सुभट सरोवर के पास प्रा पहंचे और उससे पूछने लगे .--"अरे ओ रजक ! क्या तुमने इधर भाग कर पाते हए एक घुडसवार को देखा है ? पथ पर उसके पदचिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होते, वह किधर भागा है ?" हाथ के वस्त्रों को सरोवर के जल में प्रास्फालित करते हुए रजक वेषधारी परमहंस ने ग्राम्यभाषा बोलते हुए विकृत स्वर में उत्तर दिया : .. "वह चोर उस वनी की ओर भाग गया है । मेरे बहुत से वस्त्र भी चुराकर ले गया है । मैं बहत चिल्लाया पर मेरी एक न सुनी। हाय राम ! मैं तो लूट ही गया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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