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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ५१७ जो इस प्रकार जिन बिम्ब पर चरण युगल रख कर आवागमन नहीं करेगा उसको इस विद्यापीठ में नहीं रहने दिया जायगा। अपने गरु की इस प्राज्ञा को शिरोधार्य कर सब बौद्ध विद्यार्थियों आदि ने जिन बिम्ब पर पैर रखते हए एवं उस पर पाणि प्रहार करते हुए आवागमन प्रारम्भ कर दिया। हंस और परमहंस ने अपने समक्ष उपस्थित हए इस घोर संकट से दुखित हो अपने मन में विचार किया : "अब क्या किया जाय ?" यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो इन हृदयहीन बौद्धों से जीवन की कोई आशा नहीं। हमने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया है उसका परिणाम अाज दिखाई दे रहा है । हम गुरु की अवज्ञा के कारण इस घोर धर्म और प्राण संकट में फंस गये हैं।' फिर भी उन्होंने गुरु नाम स्मरण करते हुए धीरज, साहस और अपनी प्रत्युत्पन्न मति से काम लिया । अत्यन्त चतुरतापूर्वक छिपे रूप से उन्होंने खड़िया से जिन बिम्ब पर बौद्ध चिन्ह बनाकर उस पर पैर रखते हुए आवागमन किया। पर बौद्धों की तीव्र दृष्टि से यह बात छिपी नहीं रह सकी । उन्हें सन्देह हो गया। जिसकी पुष्टि हेतु बौद्धाचार्य ने एक दूसरा उपाय खोज निकाला । एक दिन अर्द्ध रात्रि में जबकि सभी विद्यार्थी प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए थे कतिपय कांस्यपात्रों का एक ढेर बड़ी ऊंचाई से हंस और परमहंस के पार्श्व में तेजी से गिराया गया। इन पात्रों के गिरने से हुए तीव्र खड-खड झन न न न करते कोलाहल से उन दोनों सहोदरों को निद्रा भंग हो गई । वे हड़बड़ा कर उठ बैठे। किसी आसन्न संकट की आशंका से उनके मुख से अनायास ही उनके इष्टदेव नमोअरिहंताणं नमो सिद्धाणं के स्मरण का स्वर गूज उठा । जैसे ही वे स्थिर हए, सारी स्थिति उनकी समझ में प्रा गई। उन्होंने देखा कि इस प्रकार की संकट की आशंका भरी स्थिति में हमारे मुख से हमारे इष्टदेव का नाम हठात् निकलता है कि नहीं, यह जानने के लिये चार बौद्धचर उनके चारों ओर लगे हुए हैं। उन्होंने उनके मुख से आकस्मिक रूप से अभिव्यक्त हुए नमस्कार मन्त्र के उच्चारण को सुन लिया है और वे इस बात से बौद्धाचार्य को अवगत कराने के लिये वहां से चल पड़े हैं। यह समझकर कि अव निश्चित रूप से उनके प्राणों पर संकट आने वाला है, उन्होंने तत्काल अपने आपको एक छाते से बांधा और उस छत्र को तानकर एक छाताधारी सैनिक की भांति वे ऊपर से नीचे कूद पड़े। इससे उनको किसी तरह का कष्ट नहीं हुमा । वे बहुत ऊंचाई से पृथ्वी पर बड़ी आसानी से उतर पड़े। उतरते ही वे वहां से भागे। वहां चारों ओर बड़ी संख्या में नियत बौद्ध सैनिक भी उनको भागते देख कर उनको पकड़ने के लिये दौड़ पड़े। उन मैनिकों को निकट पाते देखकर हंस ने अपने छोटे भाई परमहंस मे कहा : .. "बन्धो ! तुम अव द्रुतगति से भाग जाओ। गुरु को प्रणाम कर उनमे मेरे अविनयपूर्ण अपराध की क्षमा मांगना । अभी तो यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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