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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ... भाग ३
दोनों शिष्यों की अनवरत अभ्यर्थना पर आचार्य हरिभद्र ने अपनी आन्तरिक इच्छा न होते हए भी उन्हें बौद्ध तर्क शास्त्रों के अध्ययन के लिये सूदरस्थ नगर में जाने की अनुज्ञा प्रदान कर दी। वे दोनों गुरु को प्रणाम कर भवितव्यता वशात् बौद्ध दर्शनों के अध्ययन के लिये प्रस्थित हुए। वे दोनों वेष परिवर्तन कर उन सब चिन्हों को, जिनसे कि उनके जैन होने का किंचित्मात्र भी संकेत किसी को मिल सके, पूर्णतः गुप्त कर के चलते हुए एक दिन बौद्ध राजा द्वारा शासित बौद्ध राज्य की राजधानी में पहुंचे। वहां से वे विद्या की भूख का शमन करने के लिये प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठ में गये। वहां उन्होंने देखा कि विद्यार्थियों के आवास हेतु विहारों की अनेक पंक्तियां बनी हुई हैं और विद्यार्थियों की प्रशन वसन पान पुस्तकादि की अावश्यकताओं की पूर्ति के लिये वहां बड़ी-बड़ी दानशालाएं भी विद्यमान हैं। उन्होंने यह भी देखा कि वहां विशाल विद्यापीठ हैं और उनमें अनेकानेक विषयों के अध्यापन की उत्कृष्ट व्यवस्था है । वहां उच्च कोटि के विद्वान् बौद्धाचार्य अपनेअपने शिष्यों को, जिस विषय को वे पढ़ना चाहें, वही विषय पढ़ाने में निरन्तर संलग्न हैं । हंस और परमहंस को यह सब देखकर परम प्रसन्नता हुई। उन्होंने भी बौद्ध विद्यापीठ में प्रवेश प्राप्त कर लिया। खान, पान, रहन, सहन आदि की सभी तरह की अति उत्तम व्यवस्था होने के कारण कुशाग्र बुद्धि मेधावियों के लिये भी अति दुर्गम बौद्ध तर्क शास्त्रों को सहज ही हृदयंगम करते हुए वे बड़े ही प्रानन्द के साथ अपने अभीप्सित बौद्ध दर्शन के अध्ययन में निरत हो गये। जैन दर्शन के खंडन के लिये जो जो अकाट्य तर्क बौद्धाचार्यों द्वारा दिये जाते थे उन तर्कों को निरस्त करने वाले एवं जैन सिद्धान्तों की शाश्वत सत्यता को सिद्ध करने वाले अपने पूर्व पठित आगम पाठों से परिपुष्ट अनेक अकाट्य प्रतितर्को, युक्तियों और प्रमाणों को वे दोनों भाई पृथक्-पृथक् पत्रों में लिपिबद्ध करने लगे। इस प्रकार उन्होंने गुप्त रूप से लिखकर जो पत्र एकत्रित किये थे उनमें से दो पत्र एक दिन संयोगवशात् प्राये वार्तृल से हवा में उड़ गये । वे दोनों पत्र बौद्ध विद्यार्थियों के हाथ लग गये। उन बौद्ध विद्यार्थियों ने उन पत्रों को पढ़कर अपने गुरु के समक्ष उन्हें प्रस्तुत कर दिया। जब विषय से सम्बन्धित बौद्धाचार्य ने उन पत्रों को पढ़ा तो अपने पक्ष के निर्बल होने तथा जैन पक्ष के सबल होने की आशंका से वह आतंकित हो उठा।
आश्चर्याभिभूत होकर बौद्धाचार्य ने कहा : .. "यहां कोई न कोई जैन धर्म का उपासक अत्यन्त मेधावी छात्र हमारे विद्यापीठ में है। अन्यथा मैंने जिन तर्कजालों का खंडन कर दिया उनका मण्डन करने में अन्य कौन समर्थ हो सकता है।"
उस बौद्ध विद्यापीठ में आये हए ऐसे जैन विद्यार्थियों को किस उपाय से खोजा जाय इस विचार में वह बौद्धाचार्य निमग्न हो गया। कुछ क्षणों तक विचार मग्न रहकर बौद्धाचार्य ने उसका उपाय खोज लिया। उसने तत्काल एक जिन बिम्ब आवागमन के प्रमुख स्थल पर रखवा दिया और वहां के सभी प्रावासियों का पादेश दिया कि उस जिन विम्ब पर पैर रखकर ही आवागमन किया जाय ।
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