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________________ वीर सम्वत् १००० उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ५१५ उसी दिन से मुनि हरिभद्र ने अपने आपको "याकिनी महत्तरा सूनु" कहना लिखना प्रारम्भ कर दिया । प्रनिश गुरु चरणों की सेवा में रहते हुए मुनि हरिभद्र ने सब आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया। अगाध श्रद्धा भक्ति एवं निष्ठापूर्वक अध्ययन करते हुए उन्होंने आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया । प्राचार्य जिनभट्ट सूरि ने अपने शिष्य हरिभद्र को सभी भांति प्राचार्य पद के योग्य समझकर शुभ मुहूर्त में प्राचार्य पद प्रदान किया । आचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् हरिभद्र सूरि स्थान-स्थान पर अप्रतिहत विहार करते हुए जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। उन्होंने अनेक भव्यों को प्रबोध दिया । एक समय हरिभद्र शौच निवृत्यर्थ जब वन में जा रहे थे तो उन्होंने दो भानजों हंस और परमहंस को चिन्ताग्रस्तावस्था में देखा । चिन्ता का कारण पूछने पर हंस और परमहंस ने प्राचार्य हरिभद्र से कहा कि घर वालों के हृदय को प्राघात पहुंचाने वाले कर्कश स्वर पिता के मुख से सुनकर हमें संसार से विरक्ति हो गई । हम घर से निकल पड़े हैं । उन दोनों भाइयों ने उत्कृष्ट भावना से प्राचार्य हरिभद्र के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। वे दोनों उनके पास विद्याध्ययन करने लगे । श्राचार्य हरिभद्र ने स्वल्प समय में ही हंस और परमहंस नामक उन दोनों मुनियों को आगमों और न्यायशास्त्र में पारगामी विद्वान् बना दिया। हंस और परमहंस परम.. मेधावी मुनि थे । उनके अन्तर्मन में बौद्ध दर्शन और बौद्ध तर्क शास्त्रों के गहन ध्ययन की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । उन दोनों बन्धुनों ने हरिभद्र के चरणों पर अपने मस्तक झुका कर उनके समक्ष अपनी यह इच्छा प्रकट की । अपने निमित्त ज्ञान के बल पर भावी अनिष्ट की प्राशङ्का से प्राचार्य ने उन अपने प्रिय शिष्यों को वहीं पर रहते हुए अध्ययन करते रहने का परामर्श दिया और कहा कि यहां पर भी उच्च कोटि के अनेक विद्वान् हैं । उनके पास रहकर ही अपना अभीप्सित ज्ञान प्राप्त करो। क्योंकि तुम्हारे बाहर जाने पर मुझे अनिष्ट की प्राशङ्का हो रही है । : हंस ने हंसते हुए निवेदन किया हम लोगों पर आपका यह वात्सल्य भाव होना स्वाभाविक ही है । आपके द्वारा परिपालित और शिक्षित होकर हम अल्पवयस्क किशोर होते हुए भी आपके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए क्या प्रभावशाली नहीं होंगे ? श्रापके नाम का हमने चिरकाल तक जाप किया है । आपके कृपा प्रसाद ने हम लोगों को सजग-समर्थ बनाया है । ऐसी दशा में दूर देश में. शत्रुनों के नगर में अथवा विकट पथों में हम दोनों पर किसी भी प्रकार के कप्ट का अथवा अपशकुन का क्या प्रभाव हो सकता है ? आपके नाम का जाप सब जगह सभी अवस्थाओं में सदा हमारी रक्षा करता रहेगा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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