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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
वृद्धा साध्वी ने उत्तर दिया:-"हां पुत्र !"
वृद्धा साध्वी की अनुभवी प्रांखों से यह छुपा नहीं रह सका कि आगे चलकर यह युवक जिनशासन की महती प्रभावना करने वाला होगा।
हरिभद्र ने कहा :-"मां ! आप मुझे उस पद्य का पूरी तरह से अर्थ समझाइये । उस पद्य के अर्थ को जानने के लिए मेरा अन्तर्मन बड़ा लालायित है।"
वृद्धा साध्वी ने उत्तर दिया :- "हे पुत्रक ! अगर जिनागमों के गहन ज्ञान की तुम्हें भूख है, तो इसके लिए तुम हमारे गुरु के पास जाप्रो।"
हरिभद्र गुरु का स्थान नामादि पूछकर प्राचार्य जिनभट्ट सूरि के पास पहुंचे। प्राचार्य के दर्शन करते ही हरिभद्र के हृदय में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई।
आचार्य जिनभट्ट सूरि के मन में उन्हें देखकर यह विचार आया कि यह वही विद्वान् ब्राह्मण तो नहीं है जिसे अपने पांडित्य पर बड़ा गर्व है और जो राजा के द्वारा पूजित है । यह यहां किस कारण से आया है।
उन्होंने प्रकट में हरिभद्र से कहा :- "भद्र ! तुम्हारा कल्याण हो । कहो यहाँ किस प्रयोजन से पाये हो ?"
पुरोहित हरिभद्र ने.बड़े विनम्र स्वर में निवेदन किया : - "पूज्यवर ! मैंने वृद्धा जैन साध्वी महत्तरा याकिनी के मुख से एक प्राकृत पद सुना है उसका अर्थ मैं पूरे प्रयास के पश्चात् भी अभी तक नहीं समझ सका हूँ। मैंने उनसे उस पद्य का अर्थ बताने के लिए निवेदन किया। उन्होंने मुझे प्रापकी सेवा में उपस्थित हो अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करने का परामर्श दिया है। इसलिए मैं आपके पास आया हूं।"
· गुरु ने कहा :- "जैन सिद्धान्तों का ज्ञान अगाध है। अगर उसे प्राप्त करने की वास्तविक भूख है तो मेरा शिष्यत्व ग्रहण करो।"
हरिभद्र जिनभट्ट सूरि के पास जैन दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बन गये ।
जिनभट्ट सूरि ने उन वृद्धा साध्वी मुख्या का परिचय कराते हुए मुनि हरिभद्र से कहा :-“सौम्य ! यह मेरी गुरु भगिनी महत्तरा याकिनी है। यह सब आगमों में प्रवीण और सब साध्वियों की शिरोमणि है।"
मुनि हरिभद्र ने विनयावनत स्वर में कहा :--"पूज्यवर ! भव भवान्तरों में भ्रमण करवाने वाले शास्त्रों का पारगामी विद्वान् होते हुए भी मैं अब यह अनुभव करता हूं कि मैं मूर्ख ही रहा। मेरे पूर्व पुण्य के उदय से ही मेरी इस धर्म माता याकिनी महत्तरा ने मेरे कुल की कुलदेवी की भांति मुझे प्रबुद्ध किया है।"
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