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वीर निर्वाण की १३वीं शताब्दी के महान् प्रभावक एवं महान् ग्रन्थकार प्राचार्य हरिभद्र सूरि
( वीर नि. सं. १२२७-१२६८ तदनुसार वि. सं. ७५७ - ८२७ )
श्री हरिभद्र सूरि । चित्रकूट के महाराज जितारि के राजपुरोहित श्री हरिभद्र अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान् थे । वे वेद वेदांग आदि के निष्णात विद्वान् और सभी विद्याओं में पारंगत थे । उन्हें अपने पांडित्य पर बड़ा गर्व था ।
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उन्होंने एक दिन मार्ग में चलते हुए एक जिनमन्दिर में जिनेश्वर की मूर्ति देखी । जिनेश्वर की प्रतिमा को देखते ही उन्होंने उपहासपूर्ण शब्दों में अपने ये उद्गार व्यक्त किये :
"वपुरेव तवाचष्टे स्पष्टमिष्टान्न भोजनम् ।
न हि कोटर संस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वलः ॥ १७ ॥"
(एक दिन] राज सभा में कार्याधिक्यवशात् उन्हें रात्रि में भी पर्याप्त समय तक राज प्रासाद में रुकना पड़ा। रात्रि में जब वे अपने निवास स्थान पर लौट रहे थे तो मार्ग में उनके कर्ण रन्धों में किसी वृद्धा की मधुर स्वर लहरियों के माध्यम से निम्नलिखित गाथा गूंज उठी :
"चक्किदुग्गं हरिपni, परणगं चक्कीरण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दुचक्की केसी य चक्की य ।। २१ । । "
यह पद्य हरिभद्र को बड़ा मनोहारी प्रतीत हुआ । समझने में बार-बार प्रयास करने पर भी असफल रहे ।
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प्रात:काल होने पर वे अपने घर से निकले और सीधे उसी भवन के पास पहुंचे जहां उन्होंने रात्रि में वह मनोहारी पद सुना था । उस भवन के द्वार में घुसते हो उन्होंने देखा कि एक तपोपूता सौम्य मुखाकृति वाली वृद्धा साध्वी वहां विराजमान है । हरिभद्र ने उस वृद्धा साध्वी का अभिवादन करते हुए पूछा: "अम्ब ! Far रात्रि में आप ही चाक चिक्य से श्रोतप्रोत एक पद्य का उच्चारण कर रही थीं ?"
किन्तु वे इसके अर्थ को
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