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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती श्राचार्य ]
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मयूर जैसे उच्चकोटि के भारत के अग्रगण्य विद्वान् कवि विद्यमान थे। स्वयं हर्ष ने "रत्नावली", "प्रियदर्शिका" और "नागानन्द" जैसे उच्च कोटि के नाटकों की रचना की । ये तीनों नाटक उस समय बड़े ही लोकप्रिय थे, यत्र-तत्र नृत्य और संगीत के साथ इन नाटकों का अभिनय किया जाता था। चीनी विद्वान् इत्सिंग ने हर्षवर्द्धन को उच्च कोटि की साहित्यिक अभिरुचि वाला विद्वान् बताया है । हर्ष के परमप्रीति पात्र बाण और मयूर ने गुरणज्ञ हर्ष का आश्रय पा जिन महान् ग्रन्थों की रचनाएं कीं, वे आज भी भारतीय साहित्य की अनमोल रत्नमालिकाएं मानी जाती हैं ।
हर्ष अपने शासन के प्रत्येक पांचवें वर्ष में प्रयाग में अपने पूर्वजों की ही भांति एक विशाल धामिक मेला आयोजित करता और इस अवसर पर वह अपने राज्य की पांच वर्षों की आय दान में दे देता था ।
चीनी यात्री प्रयाग के इस समारोह के सम्बन्ध में अपने संस्मरणों में लिखता है कि हर्षवर्द्धन इस अवसर पर सर्वप्रथम बुद्ध की मूर्ति के समक्ष बहुमूल्य रत्नों की भेंट चढ़ाता था । तदनन्तर वह पास-पड़ोस और दूर-दूर से इस अवसर पर एकत्रित हुए बौद्ध भिक्षुत्रों को, तदनन्तर महान् साहित्यिकों, निराश्रितों, अपंगों और रंकों को क्रमश: भेंट, पारितोषिक, अनुदान आदि दानादि के रूप में देता था ।
चीनी यात्री हुएनसांग ने हर्षवर्द्धन द्वारा कन्नोज में निरन्तर २१ दिनों तक आयोजित किये गये धार्मिक सम्मेलन अथवा धार्मिक मेले का उल्लेख किया है । चीनी यात्री के उल्लेखानुसार उस मेले में कामरूप का महाराजा भाष्करवर्मन ( परमशैव ) मुख्य अतिथि के रूप मे सम्मिलित हुआ था । भाष्करवर्सन के अतिरिक्त १८ अन्य राजा भी इस धार्मिक मेले में उपस्थित हुए थे। उस मेले के प्रयोजन से पूर्व हर्षवर्द्धन १०० फीट ऊंचा एक स्तूप बनवाया । हर्ष ने अपने ही शरीरोत्सेध के बराबर ( मानव कद की ) भगवान् बुद्ध की एक स्वर्णमयी मूर्ति का निर्माण करवाया और उस स्तूप के गुम्बज में उसे प्रतिष्ठापित किया । हर्षवर्द्धन ने एक दूसरी छोटी स्वर्णमयी बुद्ध की मूर्ति को रत्नजटित सोने की भूल से सुसज्जित गजराज की पृष्ठ पर अम्वावारी में रखा | स्वयं शक्र ( देवेन्द्र ) जैसा रूप बनाकर बुद्ध की मूर्ति पर छत्र किये बैठा । मूर्ति के दक्षिण पार्श्व में ब्रह्मा का वेप धारण किये भाष्करवर्मन बैठा । भाष्करवर्मन बुद्ध की स्वर्णमयी मूर्ति पर चंवर दुराता ( दौलाता ) रहा । सहस्रों लोगों ने इस शोभायात्रा में बड़े उत्साह के साथ भाग लिया । विविध वाद्ययन्त्रों की सुमधुर ध्वनियों एवं जयघोषों से कन्नौज के धरातल और गगनमण्डल को गुजरित करता हुआ शोभायात्रा का उद्वेलित सागर के समान विशाल जनसमूह जब गगनचुम्बी गुम्बज के प्रकोष्ठ के द्वार के पास पहुंचा तो महाराजाधिराज हर्षवर्द्धन ने बुद्ध की उस स्वर्ण मूर्ति को अपने स्कन्ध पर उठाया । मूर्ति को कन्धे पर लिये हर्षवर्द्धन पैदल चलकर उस गुम्बज के पास पहुंचा । तदनन्तर उसने भगवान्
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