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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास----भाग ३ (४) परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्द्धन अपर नाम प्रतापशील । रानी यशोमती देवी। । परम भट्टारक महाराजाधिराज परम भट्टारक महाराजाधिराज __ राज्यवर्द्धन हर्षवर्द्धन पुरातत्व-सामग्री से यह प्रकट होता है कि राज्यवर्द्धन के अतिरिक्त इस वंश के सभी राजा शैव धर्मावलम्बी थे। राज्यवर्द्धन बौद्ध धर्मानुयायी था। थानेश्वर राजवंश की उपरिलिखित वंशावलि को देखने से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इनमें प्रभाकरवर्द्धन से पहले के इस वंश के राजा केवल महाराजा विरुद के ही धारक थे । इस राजावलि में केवल प्रभाकरवर्द्धन ने ही सर्वप्रथम परम भट्टारक महाराजाधिराज पद धारण किया । इससे यह प्रमाणित होता है कि थानेश्वर राज्य सर्वप्रथम प्रभाकरवर्द्धन के शासनकाल में ही स्वतन्त्र राज्य बना । इससे पहले संभवत: इसके ई० सन् ५०० से ५८० के बीच हुए सभी पूर्वज गुप्त साम्राज्य के अधीनस्थ सामन्त राजा रहे होंगे। महाराजा मादित्यवर्मन का विवाह गुप्त सम्राट महासेन की बहिन महासेना से हुआ और इस वैवाहिक सम्बन्ध के पश्चात् थानेश्वर राज्य शनैः-शनैः शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरने लगा और अंततोगत्वा महासेन का भागिनेय प्रभाकरवर्द्धन : शक्तिशाली स्थानेश्वर राज्य का महाराजाधिराज बन गया । गुप्त सम्राट महासेन के समय को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि प्रभाकरवर्द्धन ई० सन् ५८० के आस-पास स्वतन्त्र महाराजाधिराज बना । महाकवि बांण ने हर्षचरित्र में प्रभाकरवर्द्धन के लिये लिखा है : ___"परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकरवर्द्धन हूण रूपी मृगों के लिये सिंह, सिन्धुराज के लिये साक्षात्काल गुर्जरराज की निद्रा को क्षण-क्षरण पर भंग कर देने वाला भयंकर स्वप्न, गान्धार के राजा के लिये भयंकर शीतज्वर, लाटराज की रणचातुरी को चूणित-विचूरिणत कर देने वाला और मालवराज की सार्वभौम सत्ता रूपिणी वल्लरी के लिये कुठार था।" प्रभाकरवर्द्धन ने अपने बड़े पुत्र राज्यवर्द्धन को अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व एक बड़ी सेना देकर भारत से हरणों के समूलोच्छेद के लिये उत्तरापथ में भेजा था। किन्तु प्रभाकरवर्द्धन रुग्ण हो गया, इस कारण राज्यवर्द्धन को शीघ्र ही उत्तरापथ से लौटना पड़ा । बांग ने इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया है कि राज्यवर्द्धन का हूणों के साथ युद्ध हुआ कि नहीं। राज्यवर्द्धन के उत्तरापथ से लौटने से पहले ही प्रभाकरवर्द्धन की मृत्यु हो गई और रानी यशोमती भी सरस्वती नदी के तट पर अपने पति के साथ चिता में जलकर सती हो गयी । अपने पिता की मृत्यु और माता के सती हो जाने के पश्चात् राज्यवर्द्धन को संसार से विरक्ति हो गयी। उसने संन्यास ग्रहण करने की आन्तरिक अभिलाषा - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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