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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ अमृत फलों से वंचित भव्य साधक सहसा भ्रान्त एवं हतप्रभ हो गये। 'तित्थोगालि पइन्नय' की वे गाथाएं इस प्रकार हैं :
पण्णासा वरिसेहिं य, बारस वरिस सएहिं वोच्छेदो। दिन्नगणि प्रसमिते, सविवाहाणं छलंगाणं ।।१२।। नामेण पूसमित्तो, समणो समणगुरण निउण चिंतविप्रो। होही अपच्छिमो किर वियाह सुयधारो वीरो ॥८१२।। तम्मिय वियाहरुक्खे, चुलसीति पयसहस्सगुण कलिए।
सहस्संचिए संभंतो, हो ही गुण निफ्फलो लोगो ।।८१४।। प्रत्-वीर निर्वाण सम्वत् १२५० में दिन्नगणि श्री पुष्यमित्र के समय में व्याख्या प्रज्ञप्ति सहित छः अंगों का व्यवच्छेद (ह्रास) हो जायगा।
विशुद्ध श्रमणाचार के परिपालक और दूसरों से पालन करवाने में निपुण एवं महान् चिन्तक वीरवर पुष्यमित्र नामक श्रमण सम्पूर्ण व्याख्या प्रज्ञप्ति का . अन्तिम धारक होगा।
गुणों से अोतप्रोत, चौरासी हजार पदों वाले पंचम अंग शास्त्र व्याख्या प्रज्ञप्ति रूपी कल्पवृक्ष के सहसा संकुचित हो जाने पर उसके गुण रूपी फलों से वंचित हुए लोग दिग्भ्रान्त हो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे।
___ इसके अतिरिक्त इनके बारे में कोई उल्लेखनीय जानकारी अद्यतन प्रयत्न करने पर भी हमें नहीं मिल सकी है। भावी शोधकर्ताओं से पूर्ण अपेक्षा है।
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