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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४६७ तिर अप्पर और ज्ञानसम्बन्धर के समकालीन जैनाचार्य वावीसिंह अपर नाम प्रोडयदेव वीर निर्वाण की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के संधिकाल के जैनाचार्यों में दिगम्बर जैनाचार्य वादीभसिंह का नाम प्रमुख ग्रन्थकारों में गिना जाता है । जयघवला जैसे महान टीकाग्रन्थ के यशस्वी रचनाकार जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में उल्लिखित शब्दों के अनुसार वादीभसिंह महाकवि योग्य प्रतिभा की पराकाष्ठा, उच्च कोटि के वाग्मी गमकानुप्रासादादि के पारदृश्वा और वादियों के हस्तियूथ के लिये विकराल केसरी-सिंह तुल्य थे। वे अपने समय के लब्धप्रतिष्ठ महान ताकिक भी थे। डा० श्याम शास्त्री द्वारा प्रकाश में लाये गये इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए वादीभसिंह ने शवक्रान्ति के सूत्रधार शैव महासन्त तिरु ज्ञानसम्बन्धर और तिरु अप्पर के साथ शैवधर्म के सिद्धान्तों के विषय में वादविवाद किया था।' इनका (वादीभसिंह का) परिचय एक विशेष ऐतिहासिक महत्व रखता है। इन सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए वादीभसिंह का संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है। ___ इनका वास्तविक नाम प्रोडय देव था। अपराजेय वादी अथवा महान् तार्किक होने के कारण उन्हें वादीभसिंह की उपाधि से विद्वानों ने विभूषित किया था। .. इनकी 'स्याद्वादसिद्धि', 'क्षेत्रचूड़ामणि' और 'गद्य चिन्तामणि'-ये तीन रचनाएं वर्तमान में उपलब्ध हैं। ये तीनों ही ग्रन्थ वस्तुतः ग्रन्थरत्न हैं। 'स्याद्वादसिद्धि' नामक न्याय और दर्शन के ग्रन्थ में १४ अधिकार हैं किन्तु इसके अन्तिम अधिकार में केवल ६ कारिकाएं ही हैं और शेष दो कृतियों की तरह इसमें अन्तिम पुष्पिका का भी प्रभाव है। इससे स्पष्टतः ही यह प्रकट होता है कि यह ग्रन्थ या तो अपूर्ण रह गया है अथवा किसी लिपिकार ने इसका पूरा पालेखन नहीं किया। वादीभसिंह की शेष 'क्षत्रचूड़ामणि' और 'गद्यचिन्तामणि' इन दोनों ही कृतियों में कथानक एक ही है, कथानायक भी वही है और कथा के पात्र भी भिन्न नहीं, वे ही हैं। इन दोनों कृतियों में कथा, कथानायक और पात्रों का सादृश्य होते हए भी पाठकों को ये दोनों ग्रन्थ एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होते हैं, यह वादीभसिंह की अद्भुत कल्पना शक्ति का ही चमत्कार है, जो अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। . एम. ए. आर. फोर १९२५ पी. पी. १२-१३ पेज ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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