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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
जातियों और वर्गों के लोगों को, शैव धर्म संघ में समान स्तर पर सम्मिलित किया। यही नहीं अपितु शैव धर्म में परम पवित्र, परम पूज्य माने गये ६३ महान् शैव सन्तों में मछुमा वर्ग के प्रतिभक्त नायनार नामक सन्त को भी सम्मिलित कर उसे महान् शैव सन्तों में समान स्तर का स्थान और सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया। अप्पर आदि शैव सन्तों का यह एक ऐसा क्रान्तिकारी कदम था, जिसने शैव धर्म संघ को जन-जन का परम लोकप्रिय धर्म संघ बना दिया।
(५) एक बहुत बड़ा महत्वपूर्ण कार्य, जिसे जैनाचार्य अथवा जैनधर्मावलम्बी प्राचीन काल से ही निरन्तर करते पा रहे थे, वह था राजसत्ता का - राजाओं का संरक्षण प्राप्त करना। अपने धर्म संघ के उत्तरोत्तर अभ्युत्थान के लिये अप्पर आदि शैव सन्तों ने इस कार्य को परम आवश्यक मान कर इस कार्य में भी जैनों का, जैनाचार्यों का अनुसरण किया।
उन्होंने पल्लवराज महेन्द्रवर्मन, पाण्ड्यराज सुन्दर पाण्ड्य आदि राजारों को अपनी वाग्मिता एवं अपने चमत्कारों आदि से प्रभावित कर अपने शैव धर्म संघ के उत्कर्ष के लिये, उन राजाओं का संरक्षण प्राप्त किया। शैव धर्म ने राज्याश्रय अथवा राजानों का संरक्षण प्राप्त कर अपने प्रतिद्वन्द्वियों को कुचल कर अपने धर्म संघ को सबल, सुदूरव्यापी और बहुजन सम्मत बनाने में किस प्रकार प्रद्भुत् एवं पाशातीत सफलता, स्वल्पकाल में ही प्राप्त कर ली, इसका प्रस्तुत प्रकरण में उल्लिखित तथ्यों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
इस प्रकार जैनों द्वारा पूर्वकाल में अपनायी गयी कार्य प्रणालियों का अनुसरण करते हुए अप्पर आदि शैव सन्तों ने अपने लक्ष्य की पूर्ति में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।
जहां तक अप्पर के समय का सम्बन्ध है, यह पहले बताया जा चुका है कि यह ई० सन् ६०० से ६३० तक सत्ता में रहे कांचीपति पल्लवराज महेन्द्रवर्मन प्रथम का गुरु और ज्ञानसम्बन्धर, सुन्दरपाण्ड्य, पल्लव सेनापति शिरुत्तोण्डा दभ्रभक्त पौर जैनाचार्य वादीभसिंह (मोडयदेव) का समकालीन था। अत: इस शैव महा सन्त अप्पर का समय भी ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर इसी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के पास-पास का अनुमानित किया जाता है।
तिरु अप्पर के जीवन की एक विशेषता है कि जैन संघ में वह प्राचार्य पद जैसे गौरवगरिमापूर्ण पद पर पहुंचा। कालान्तर में शैव धर्म अंगीकार कर शैव सन्तों में भी शीर्षस्थान पर पहुंचा और अन्त में पुनः जैनधर्मावलम्बी बन गया और अन्ततोगत्वा जिन शैवों को उत्कर्ष के उच्च शिखर पर पहुंचाया, उन्हीं के द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।
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