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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४६५ और विद्वान् श्रमण रहा होगा और उसके उन गुणों से प्रभावित होकर जैन संघ ने उन्हें पाटलिपुरम के मठ का अधिष्ठाता और वहां के जैन संघ का प्राचार्य बनाया था। धर्म संघ के संचालन का उसे प्रत्यक्ष और सक्रिय अनुभव था। किन-किन कार्यक्रमों को जन-कल्याण की भावना से हाथ में लेकर जनमत को अपनी ओर माकर्षित किया जा सकता है और उन कार्यक्रमों के माध्यम से धर्म संघ को अभ्युदय-उत्थान के पथ पर अग्रसर किया जा सकता है, इन सब बातों का अप्पर को जैनाचार्य के पद पर वर्षों तक कार्य करते रहने के कारण अच्छा अनुभव था। शैव धर्म अंगीकार करने के पश्चात् अपने उन अनुभवों के आधार पर शैव धर्म की स्थिति को तमिलनाडु की भूमि में सुदृढ़ करने के लिये जैन संघ द्वारा संचालित उन सब जन-कल्याणकारी कार्यक्रमों को और कार्य प्रणालियों को सैद्धान्तिक रूप से शैव धर्म के कर्तव्यों में सम्मिलित किया। वे जन-कल्याणकारी सार्वभौम मानवीय सिद्धान्त, जिनको अप्पर ने जैनों का अनुसरण करते हुए शैव धर्म के कर्तव्यों में सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार किया, वे मोटे रूप में इस प्रकार हैं : (१) जैन धर्मानुयायी प्रतिदिन अपने आराध्यदेव तीर्थंकरों की स्तोत्रों से सस्वर पाठ के साथ स्तुति-पूजा-अर्चा करते हैं। इसी का अनुसरण करते हुए अप्पर आदि शैव सन्तों ने भी शवों के धर्म स्थानों और मन्दिरों आदि में अपने आराध्य देव शिव की स्तुति-पूजा-अर्चा आदि का शैवों के लिये विधान किया। (२) जैन धर्मानुयायी ६३ शलाका (श्लाघ्य) महापुरुपों के जीवन-चरित्रों का गठन-पाठन करते हैं। अप्पर प्रादि शैव सन्तों ने भो ६३ महान् शैव सन्तों के जीवन चरित्रों का निर्माण एवं संकलन किया और उनके पठन-पाठन, श्रवरणधावरण को शैव धर्मावलम्बियों का प्रावश्यक कर्तव्य निर्धारित कर दिया। (३) जैन धर्म में प्राहारदान, अभय दान (प्रागादान), भैषज्यदान और ज्ञान दान अथवा शास्त्र दान को महान पुण्यप्रदायी और उच्च कोटि का जनकल्याणकारी कार्य माना गया है। अप्पर आदि शैव सन्तों ने भी अपने शैव धर्म के सार्वत्रिक प्रचार-प्रसार और सर्वतोमुगी अभ्युत्थान के लिये जैनों का अनुसरण करते हुए आहाराभय-भैपज्य-शास्त्र-दान को सैद्धान्तिक रूप से शैवधर्म के प्रमुख कर्तव्यों में स्थान दिया। (४) जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था के लिये कहीं कोई स्थान नहीं है, केवल कर्म को ही जैन धर्म में महत्व दिया गया है। वैष्णव धर्म की मान्यताओं के पर्णतः प्रतिकूल होते हुए भी "अप्पर आदि शैव सन्तों ने जाति-पांति को शैव धर्म में कोई स्थान नहीं दिया।" इसे अप्पर आदि शैव सन्तों ने न केवल सिद्धान्त रूप में ही स्वीकार किया किन्तु तत्काल जाति-पांति-वर्गविहीन शैव समाज के सिद्धान्त को कार्यरूप में परिणत कर दिया। उन्होंने परिगणित अथवा प्रदूत गिनी जाने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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