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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४६१ rauanslNNI प्रसिद्ध नगर है, जहां अप्पर को धर्मपरिवर्तन करवा कर जैन साधु से शैव साधु बनाया गया । अप्पर को जैन साधु से शैव साधु बनाने में उस पर अनेक प्रकार के अद्भुत चमत्कारों का प्रयोग करना पड़ा।' अन्ततोगत्वा जब अप्पर को एक चमत्कार के प्रयोग द्वारा असाध्य रोग से मुक्त और पूर्ण स्वस्थ कर दिया गया तो उसने जैन श्रमणधर्म का परित्याग कर शैव धर्म अंगीकार कर लिया जो बड़ा ही प्रभावशाली और महान् शैव सन्त सिद्ध हुआ। - जैन श्रमण से जब वह शैव साधु बना उस समय उसका नाम अप्पर रखा गया । अप्पर की तिरुनावूक्करस अर्थात् वागीश (वृहस्पति का पर्यायवाची शब्द) के नाम से भी प्रसिद्धि हुई। जिस समय वह जैन साधु और पाटलिका (पाटलिपुरम्) के प्राचीन जैन श्रमणकेन्द्र अथवा मठ का आचार्य था उस समय उसका नाम धर्नसेन था । शैव साधु बनते ही अप्पर ने पाटलिका के जैनसंस्कृति के एक प्रसिद्ध केन्द्र के मठ को और मन्दिर को धूलिसात् कर उसके स्थान पर "तिरु वाडिगाई" नामक एक विशाल शिवमन्दिर बनवाया। जैनवांग्मय के अध्ययन से संत तिरु अप्पर के विषय में एक तथ्य प्रकाश में प्राता है कि उसने शैव सन्त बनने से पहले अपने जैन श्रमरण-जीवन में एक ऐसे प्राचीन जैन मठ में जैन शास्त्रों का अध्ययन किया जो जैन संस्कृति के अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र स्थल गिना जाता था। आगे चलकर अपनी महान् प्रतिभा के बल पर वे उस विद्या-केन्द्र के प्राचार्य बनाये गये। इस सम्बन्ध में इतिहास के विद्वानों और शोधार्थियों को इस बात की खोज करने की आवश्यकता है कि वस्तुतः जैन संस्कृति का वह प्राचीन केन्द्र यापनीय परम्परा का केन्द्र था अथवा दिगम्बर परम्परा का या अन्य किसी परम्परा का। जैन संस्कृति का वह प्राचीन केन्द्रस्थल पाण्डय राज्य के पाटलिका नामक नगर में था, इस बात के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। शक संवत् ३८० (ई० सन् ४५८, तदनुसार वीर नि० सं० ६८५ और वि० सं० ५१५) में कांचीपति सिंहवर्मन के शासनकाल के २० वें वर्ष में पाण्डयराज्य के पाटलिक ग्राम में सर्वनन्दि नामक जैनाचार्य ने प्राकृत भाषा के 'लोकविभाग' नामक ग्रन्थ की रचना सम्पन्न की। १ एपिग्राफी रिपोर्ट्स, मद्रास, वोल्यूम ५। २ विश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिकनामनि पाण्ड्यराष्ट्र, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनि सर्वनन्दिः ।।२।। संवत्सरे तु द्वाविंश, कांचीशसिंहवर्मणः । प्रशीत्यग्रे शकाव्दानां, सिद्धमेतच्छतत्रये ।।३।। (शक सं. ३८०) -लोक विभाग, (संस्कृत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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