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________________ ४६२ । [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ पाटलिका को ही वर्तमान में तिरुप्पपुलियुर, तिरु पल्हिरिपुरम् अथवा पाटलिपूरम के नाम से अभिहित किया जाता है । पालिका के उस प्राचीन जैन संस्कृति के केन्द्र (मठ) के स्थान पर ही अप्पर द्वारा बनवाया हुमा तिरुवाडिगाई नामक शिवमन्दिर अाज विद्यमान है, यह एपिग्राफी रिपोर्ट्स, मद्रास, वोल्यूम ५ से सिद्ध है। आज प्राकृत भाषा का लोकविभाग कहीं उपलब्ध नहीं है पर उसका सिंहसूरर्षि द्वारा किया हुअा संस्कृत रूपान्तर अाज विद्यमान है । संस्कृत लोकविभाग की प्रशस्ति में एक श्लोक है, जो शोधार्थी विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है ! वह श्लोक इस प्रकार है : भव्येभ्यः सुरमानुषोरुसदसि श्री वर्द्धमानार्हता, यत्प्रोक्त जगतो विधानमखिलं ज्ञातं सुधर्मादिभिः । प्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहसूरषिणा, भाषाया परिवर्तनेन निपुणः सम्मानितं साधुभिः ।। इस श्लोक में "ज्ञातं सूधर्मादिभिः" यह पद वस्तुतः मननीय है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में भ० महावीर का पट्टधर, भ० महावीर से सम्पूर्ण ज्ञान ग्रहण करने वाला, उस ज्ञान के आधार पर द्वादशांगी रूपी समस्त जैन आगमों का ग्रथयिता और उस 'आगमजान का दूसरों को ज्ञान कराने वाला गौतम को ही माना गया है, सुधर्मा को नहीं। श्वेताम्बर परम्परा में भ० महावीर का प्रथम पट्टधर सूधर्मा को माना गया है । आचारांगादि आगमों के सम्बन्ध में यापनीय परम्परा की मान्यता भी श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही है, यह यापनीय परम्परा के यत्किचित उपलब्ध साहित्य से निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है । 'लोकविभाग' के ऊपर उद्धत श्लोक में सुधर्मा को भ० महावीर से ज्ञान ग्रहण करने वाला और सुधर्मा से ही उस ज्ञान के उत्तरवर्ती प्राचार्य परम्परा में चले पाने का उल्लेख किया है। इससे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राचार्य सर्वनन्दि और उनसे दो तीन पीढ़ी पश्चात् हुए प्राचार्य धर्मसेन (तिरु अप्पर) कहीं यापनीय परम्परा अथवा किसी अन्य परम्परा के आचार्य तो नहीं थे । यह प्रश्न शोधार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण शोध का विषय है । आशा है शोधप्रिय विद्वान् इस पर शोधपूर्ण प्रकाश डालने का प्रयास अवश्य करेंगे। इतिहासविदों की यह मान्यता है कि यापनीय परम्परा के आचार्यों एवं साधुनों के नाम अधिकांशतः पूर्वकाल में नन्द्यन्त और कीर्त्यन्त हा करते थे। इस पष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए लोकविभाग के रचयिता सर्वनन्दि के सम्बन्ध में शोध करना आवश्यक हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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