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________________ ४६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ लिये तिरु अप्पर का जैन और शैव दोनों ही धर्मों के इतिहास में सदा सर्वदा क्रमशः विषाद और हर्ष के साथ स्मरण किया जाता रहेगा। तमिलनाड़ में जैन धर्म पर कभी भुलाये नहीं जाने योग्य घातक प्रहार कर उसे निर्बल बनाने वाले शैव सन्तों में जिस प्रकार अप्पर का नाम शीर्ष स्थान पर प्राता है उसी प्रकार तमिलनाड़ में शैवधर्म को उत्कर्ष के शिखर पर बैठाने वाले शैव सन्तों में भी अप्पर का नाम मूर्धन्य स्थान पर आता है। __कांचिपति पल्लवराज महेन्द्रवर्मन प्रथम जैसे कवि, वाग्मी और विज्ञ जैन धर्मानुयायी राजा को न केवल शैव धर्मानुयायी ही अपितु जैनधर्म का प्रबल शत्रु बनाकर उससे अपनी इच्छानुसार जैनधर्मावलम्बियों पर हृदयद्रावक अत्याचार करवाने वाला अप्पर कैसा प्रभावशाली वाग्मी और अद्भुत प्रतिभा का धनी होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पल्लवराज महेन्द्रवर्मन प्रथम को यशस्वी इतिहासविदों ने एक महान् राज्य निर्माता, कवि, लेखक तथा संगीतज्ञ माना है । वह 'मत्त विलास', 'विचित्र-चित्र' एवं 'गुणभार' जैसी अनेक उपाधियों से विभूषित था। उसने 'मत्त विलास प्रहसन' नामक एक हास्य रस की कृति की भी रचना की। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उसकी हास्य रस की उत्कृष्ट साहित्यिक कृति से प्रभावित जैनों ने महेन्द्रवर्मन प्रथम को 'मत्तविलास' की उपाधि से विभूषित किया । अपनी उस 'मत्तविलास-प्रहसन' नामक कृति में महेन्द्रवर्मन ने इसके पात्रों में पाशुपत परिव्राजक, कापालिक, कापालिक की पत्नी और एक बौद्ध (भिक्ष) को तो सम्मिलित किया है किन्तु किसी जैन श्रमण अथवा गृहस्थ को उस प्रहसन के पात्रों में सम्मिलित नहीं किया। इसे इतिहासविदों ने इस बात का एक सबल प्रमाण माना है कि महेन्द्रवर्मन जैन था। इस प्रकार के विशिष्ट विद्वान और दृढ़ आस्थावान् जैन राजा को भी अप्पर ने शैवधर्मानुयायी बना लिया, यह अप्पर की अप्रतिम प्रतिभा का ही प्रभाव था। शैव एवं जैन-दोनों धर्मों के साहित्य तथा शिलालेख आदि में अप्पर के जो अपर नाम उपलब्ध होते हैं, वे हैं :--- (१) तिरु अप्पर (२) अप्पर (३) तिरु नावुकरसर (४) धर्मसेन (५) तिरु नावुकरसर नायनार और वागीश । तिरुवाडी, जिसे तेबारम् साहित्य और आधिराजमांगल्यपुर के शिलालेख में तिरुवाडिगाई के नाम से अभिहित किया गया है, एक ऐसा ऐतिहासिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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