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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] । ४८६ (११) तडुक्कै उडल् इडुक्की-तलै परिक्कुम समनर अर्थात्-शरीर पर ताड़ के पत्तों को लपेटे हुए अपने सिर के बालों को नोचने वाले ये जैन मुनि हैं। (१२) पैरुक्क पिदम समनर-सीरकाली अर्थात्-जिस बात में सच्चाई का लवलेश मात्र भी नहीं इस प्रकार की गप्पें मारने वाले हैं जैन मुनि । (१३) गुंडुमुद्रि कूरै इन्रिये पिंडम् उन्नुम पिरान्दर सोल्ल केलेल-तिरुपुलवूर अर्थात्--मोटे-धाटे एवं नग्न (नंग-धडंग) खड़े होकर खाने वाले बौद्ध की बातों को कभी मत मानो।' इस प्रकार तिरु ज्ञान सम्बन्धर जीवन पर्यन्त शैव धर्म के उत्कर्ष के साथसाथ तमिलनाड़ की धरती से जैन धर्म के अस्तित्व को मिटाने के लिये सतत प्रयास करते रहे। तिरु अप्पर और तिरु ज्ञान सम्बन्धर-ये दोनों ही शैव महासन्त समकालीन थे। इन दोनों के प्रयास से तमिलनाड़ में शवधर्म का प्रचुर प्रचार-प्रसार हुआ । तिरु अप्पर ने अपने जीवन के अन्तिम काल में शैव धर्म का त्याग कर पुनः जैनधर्म अंगीकार किया। ये पल्लवराज महेन्द्र वर्मन के समकालीन सुन्दर पाण्ड्य के गुरु थे, यह पहले बताया जा चुका है। पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन का राज्यकाल यशस्वी इतिहासकार डा० के० ए० नीलकण्ठ शास्त्री ने ई० सन् ६००६३० तक निर्धारित किया है । इससे ज्ञानसम्बन्धर का समय भी ईसा की सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध स्वतः प्रमाणित होता है । संत तिरु अप्पर का उपलब्ध जीवन-वत्त अपनी युवावस्था में वर्षों तक जैन धर्म के एक संघ विशेष के परम सम्मानास्पद आचार्य जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहने के पश्चात् शैव सन्त बनकर तिरु अप्पर ने तमिलनाड़ में जैनधर्म के सर्वतोमुखी वर्चस्व को समाप्त प्रायः करने और शैव धर्म का व्यापक प्रचार करने में जो युगपरिवर्तनकारी कार्य किये, उन कार्यों के स्व. बाबाजी श्री जयन्त मुनिजी के संसार पक्ष के सुपौत्र श्री रेख चन्द्रजी चौधरी के सौजन्य से श्री विनयचन्द ज्ञान भण्डार, जयपुर को प्राप्त विवरण-पत्र के आधार पर। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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