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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ४८७ वादीभसिंह का समय ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी के बीच का अनुमानित किया जा सकता है।
जो इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति इनके समकालीन थे उनके नाम हैं :
(१) तिरु ज्ञानसम्बन्धर, (२) सुन्दर पाण्ड्य, (३) पल्लवराज महेन्द्रवर्मन, (४) पल्लवराजा नरसिंहवर्मन, (५) पल्लव सेनापति शिरुत्तौण्डादभ्रभक्त, और वादीभसिंह (अपर नाम प्राचार्य अजितसेन और प्रोडयदेव) ।
तिरु ज्ञानसम्बन्धर ने मदुरा में जैनों का सामूहिक संहार और धर्मपरिवर्तन करवाने के अनन्तर शैव धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ स्थान-स्थान पर घूम-घूम कर अपनी कविताओं के माध्यम से जनमानस में जैन साधुओं एवं बौद्धों के प्रति घणा फैलाने का प्रयास किया। उन कविताओं में से कतिपय पद यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
(१) बुद्ध रोडु पोरियिन समनुम पुरंकूरि नेरीनल्लार "ब्रह्मपुर पदीकम्"
अर्थात् बौद्ध मुनि बुद्धिहीन और जैन मुनि सत्य के बदले झूठ बोलने वाले होते हैं। ऐसे लोग धर्म के रास्ते में कभी नहीं टिक सकेंगे।
(२) सैद अवत्तर मीगु तेररगल साक्कियर मेप्पिर पोकल अल्लाकद । प्रवत्तर मोलियै तविर वारगल "तिरु पुगलर पदीक्कम''
अर्थात् इन लोगों (बौद्धों और जैनों) की अर्थहीन बातों को लोग मानना छोड़ देंगे, क्योंकि उनकी बातों से किसी कार्य सिद्धि का होना असंभव है। अतः उनकी बातें अर्थहीन और किमी भी काम को नहीं।
(३) प्रासियार मोलियार अमन (जैन साधु) साक्कियर अल्लादवर । “कूडि-कूड़ी एसी ईरमिलराय मोलि सैदवर सोल्लै पोरुलेन्नेल ।"
अर्थात्--अपने भक्तजनों को बौद्ध मुनि और जैन मुनि जो पाणीप यूक्त वचन बोलते हैं, धर्म बोध देते हैं, उनकी उन बातों को कोई सच न मानें।
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