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शैव महासन्त तिरु ज्ञान सम्बन्धर का उपलब्ध
संक्षिप्त जीवन वृत्त
शैव सम्प्रदाय का भारत के दक्षिणी प्रदेश तमिलनाड़ में पुनरुद्धार अथवा पुनरुत्थान करने वाले शैव सन्तों में तिरु ज्ञान सम्बन्धर और तिरु अप्पर के नाम शीर्ष स्थान में आते हैं। तिरु ज्ञान सम्बन्धर और तिरु अप्पर जिस प्रकार दक्षिण में और मुख्यतः तमिलनाड़ में शैवधर्म के पुनरुद्धार के अभियान के सूत्रधार माने गये हैं, उसी प्रकार जैनधर्म को गहरी क्षति पहुंचाने वालों के भी ये सूत्रधार माने जाते हैं । इनके जीवन के सम्बन्ध में जो परिचय पर्याप्त प्रयास के पश्चात् प्राप्त हा सका है, उसे यहां संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है :
तिरु ज्ञान सम्बन्धर को शैव साहित्य में स्थान-स्थान पर ज्ञान सम्बन्धर मूर्ति नायनार और सम्बन्धर के नाम से अभिहित किया गया है। इसका एक और नाम-पिल्ले नायनार भी उपलब्ध होता है। पिल्ले नायनार का जन्म तन्जौर जिले के शियाली नामक ग्राम के एक. ब्राह्मण परिवार में हा। ज्ञान सम्बन्धर द्वारा रचित तेवारम् के कतिपय पदों के आधार पर कतिपय विद्वानों द्वारा अनुमान किया गया है वह शिरुत्तोंडा अपर नाम दभ्रभक्त नामक एक यशस्वी सेनापति का परम मित्र था । पल्लवराज नरसिंहवर्मन (महेन्द्रवर्मन प्रथम जिसे अप्पर ने जैन से शैव बनाया था, उसके पुत्र) ने पश्चिमी चालुक्यों की राजधानी वातापी (बादामी) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार किया, उस युद्ध में यह शिरुत्तोंडा दभ्रभक्त मेनापति था । इस नरसिंहवर्मन का शासनकाल ६३० से ६६८ ई० माना गया है ।
डा० शाम शास्त्री ने शोध के पश्चात् यह अभिमत व्यक्त किया है कि ज्ञानसम्बन्धर और अप्पर के साथ वादीसिंह नामक एक महान् दार्शनिक एवं कवि तथा वादीश (जैन मुनि) ने शैव धर्म के गुण-दोष विषय पर वाद-विवाद किया था। जयधवला एवं प्रादि पुराण के रचनाकार पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य जिनसेन ने वादीभसिंह के गुणों का कीर्तन करते हुए आदि पुराण में उनका निम्नलिखित रूप में स्मरण किया है :
कवित्वस्य परासीमा, वाग्मितस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्य पर्यन्तो, वादिसिंहीऽर्च्यते न कैः ।। जिनसेन ने ई० सन ८३७ में जयघवला टीका की रचना पूर्ण की। जिनसेन ने अपने से पूर्व हुए वादीभसिंह को बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया है, इसमे
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