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________________ ४८४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- भाग ३ मदुरा को नष्ट करने के लिए भेजा। उसे भी शिव ने एक ही शर के प्रहार से धराशायी कर दिया। नागमलेइ पहाड़ी जैनों के काले जादू के काले नाग की ही अवशेष मात्र है। तदनन्तर जैन साधुयों ने अपने काले जादू के प्रभाव से गौ (सांड वृषभ) उत्पन्न कर मदुरा की ओर भेजा। पिनाकपारिण शिव की कृपा से एक ही बाण के प्रहार से निष्प्राण हो वह वृषभ भी मर गया जो पशुमलेइ पहाड़ी के रूप में आज भी मदुरई के पास एक ओर विद्यमान है ।' उपरोक्त विवरणों से पाठक की यह धारणा बनना स्वाभाविक हो सकता है कि उस धार्मिक विप्लव के परिणाम स्वरूप जैनधर्म अपने शताब्दियों के सुदृढ़ गढ़ तमिलनाड़ से उस समय प्रायः लुप्त ही हो गया होगा। परन्तु वस्तुस्थिति इससे भिन्न ही रही। इन सामूहिक संहारों के घातक प्रहारों के उपरान्त भी उस समय और उससे उत्तरवर्ती काल के ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन अत्याचारों के चार-पांच शताब्दियों पश्चात तक भी, वल्लिमलै (वन्दिवाश ताल्लुक), उत्तरी आर्काट जिला, तिरुक्कुरण्डी, (सलेम जिले) में स्थित तग्दूर (धर्मपुरी), त्रावनकोर के कतिपय भागों, चोल राज्य, पाण्ड्यराज, टोण्डइमण्डलम् उत्तरी आर्काट जिले के विलप्पाकम्, तिरुमलई, उत्तरी आर्काट जिले का वेडाल-विडाल अथवा मादेवी अरिन्दमण्डलम्, कोयम्बतूर जिले के भुडिगोण्डकोलपुरम, वेरणबुवलनाडु के कुम्बनूर, शत्तमंगलम् के देवदान नामक ग्राम, नेलर जिले के कनुपरतिपाडु आदि तमिलनाड के अनेकों क्षेत्रों में जैन धर्म खूब फलता-फलता रहा । इनमें से अनेक स्थान जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के उस संक्रान्ति-काल से उत्तरवर्ती कालावधि के प्रमुख केन्द्र थे। पुनः एक बड़ी राजशक्ति के रूप में उदित हए चोल शासन ने जैन धर्मावलम्बियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण मधुर व्यवहार करना प्रारम्भ किया । तमिलनाड़ में स्थान-स्थान पर जैनों के धर्मस्थानों और जैनधर्म के केन्द्रों को ग्राम, भूमि, सम्पत्ति आदि के दान विपूल मात्रा में दिये गये। इससे जैनधर्म तमिलनाड़ में शैवों के प्रहारों से पहले की स्थिति में भले ही नहीं पा सका किन्तु फिर भी उसने अपनी स्थिति को पर्याप्तरूपेण अपेक्षाकृत सुदृढ़ किया । ' जैनिज्म इन साउथ इंडिया एण्ड सम जैन इपिग्राफ्स पी. बी. देसाई लिखित-पेज ६२ २ मैन्युअल आफ पुदु कोट्टाई स्टेट, वाल्यूम २, पार्ट १. पेज ५७४-७ व ६८७-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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