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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४७७ उपरान्त भी आपका यह रोग शान्त नहीं हुआ, बल्कि और भी उग्र रूप धारण करता जा रहा है । यह हमारे लिये बड़ी चिन्ता का विषय बना हुआ है। अब हमें इसके लिये धर्म की शरण ग्रहण करनी चाहिये । यही एक मार्ग बचा है । कल प्रातःकाल ही धर्मगुरुओं को बुलाकर उनसे प्रार्थना की जाय कि वे अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा, अपने त्याग-तप के बल पर अथवा किसी भी प्रकार की अलौकिक सिद्धि के प्रताप से अथवा चमत्कारादि से किसी भी प्रकार हो, आपको रोगमुक्त कर पूर्ण स्वस्थ बना दें।" "पाण्ड्य राजराजेश्वरी ! तुम्हारा यह प्रस्ताव परमोपयोगी होने के साथसाथ वस्तुतः बड़ा प्रशंसनीय है। इस प्रकार की व्यवस्था तो हमें इस रोग के प्रादुर्भाव काल में ही कर लेनी चाहिये थी । अस्तु, कल अवश्य ऐसा ही करेंगे।" - यह कहते हुए सुन्दर पाण्ड्य ने प्रातः काल साधुओं को ससम्मान राजसभा में निमन्त्रित करने का निर्देश सम्बन्धित अधिकारी को दिया। दूसरे दिन प्रातः काल राजसभा में जैन साधु उपस्थित हुए। महामन्त्री ने उनसे प्रार्थना की कि वे कृपा कर अपने विशिष्ट विज्ञान अथवा विद्याबल से पाण्ड्यराज के रोग का समूल नाश कर दें। महारानी ने भी जैन मुनियों से निवेदन किया-"भगवन् ! आप राजगुरु हैं । सब सिद्धियां आपकी चरण दासियां बनी हुई पापकी आज्ञा का पालन करने के लिये प्रति पल तत्पर रहती हैं। कृपा कर आप अपने सिद्धिबल के चमत्कार से मेरे स्वामी को पूर्ण रूपेण स्वस्थ कर दें। राजराजेश्वर के रोगग्रस्त होने के कारण स्वय महाराज, समस्त प्रजाजन और हम सब चिंतित हैं। महाराज को रोगमुक्त करने के प्रयास में किसी भी प्रकार की कमी न रह जाय, इसलिये हम सव और स्वयं पाण्ड्यराज की ओर से यह पण (शर्त) रखा गया है कि जो धर्मगुरु पाण्ड्यराज को इस रोग से मुक्त कर देगा वही राजगुरु होगा। राजगुरु होने के कारण सर्वप्रथम आपको यह अवसर दिया जा रहा है। आपके असफल रहने पर अन्य को अवसर दिया जाएगा।" पेरियपुराण के उल्लेखानुसार सर्व प्रथम जैन मुनियों ने पाण्ड्यराज को रोगमुक्त करने के लिये मन्त्र-तन्त्र आदि सभी प्रकार के उपचारों का प्रयोग किया किन्तु उनको सफलता प्राप्त नहीं हुई। अन्ततोगत्वा शैव सन्त ज्ञानसम्बन्धर को ग्रामन्त्रित किया गया और परण को सुनाने के पश्चात् उनसे भी यही प्रार्थना की गई कि वे अपनी अलौकिक गक्ति से पाण्ड्यराज को उस असाध्य रोग से मुक्ति दिलाएं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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