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________________ ४७६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ अथवा मन्त्र तन्त्र के चमत्कार से उनकी कमर सीधी कर सकें तो अपना अभीप्सित कार्य श्रनायास ही सिद्ध हो सकता है ।" कुछ क्षरण विचार के पश्चात् ज्ञानसम्बन्धर ने कहा :- "मुझे विश्वास है कि भगवान् शंकर के कृपाप्रसाद से यह काम तो मैं कर दूंगा ।" रानी ने हर्षावरुद्ध कण्ठस्वर से कहा :-' अपना काम सिद्ध हो गया ।" - "गुरुवर ! तो समझ लीजिये कि कुछ क्षण विचारमग्न रहने के अनन्तर पाण्ड्य राजरानी ने कहा - "मेरे मस्तिष्क में एक बड़ी सुन्दर योजना आई है। मैं प्राज ही महाराजा से निवेदन करूंगी कि जैन साधु बड़े ही पहुंचे हुए और अनेक प्रकार की सिद्धियों से सम्पन्न होते हैं । आपके राज्य में उनके रहते हुए प्रापका यह रोग दूर नहीं हो सके, आपकी कमर उत्तरोत्तर अधिकाधिक झुकती ही जाय, यह न हमारे लिये शोभास्पद है और न उनके लिये ही । अतः कल प्रातः काल ही उन्हें यहां राजसभा में बुलवा कर कहा जाय कि वे अपनी तप की अद्भुत सिद्धियों की, अथवा मन्त्र-तन्त्र आदि चमत्कारों की शक्ति लगाकर आपकी कमर को सीधी कर दें ।" अपना कथन प्रारम्भ रखते हुए रानी ने अपने गुरु ज्ञानसम्बन्धर से कहा :" मेरा विश्वास है कि महाराज रोग से मुक्ति पाने के लिये उन जैन साधुनों को श्रवश्यमेव बुलायेंगे और रोग से मुक्ति दिलाने की उनसे प्रार्थना भी करेंगे। पर वे ऐसा कोई चमत्कार करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे । इससे पहले कि जैन साधु कुछ कहें, मैं राजा, राजसभा और उन जैन साधुओं के समक्ष स्पष्ट शब्दों में यह बात रख दूंगी कि जो धर्मगुरु राज-राजेश्वर पाण्ड्राज को इस रोग से मुक्ति दिलायेगा, वही पाण्ड्यराज और उसकी प्रजा का धर्मगुरु और उनका धर्म ही सबका धर्म होगा । पाण्ड्यराज अपने इस असाध्य रोग से छुटकारा पाने के लिये बड़े ही धातुर हैं अतः वे तत्काल इस परण (शर्त) को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे और इस तरह पाण्ड्यराज को शैव धर्मावलम्ली बना लिये जाने के पश्चात् सम्पूर्ण पाण्ड्य राष्ट्र में प्रापको यथेप्सित रूप से शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं श्रायेगी । हमारे समक्ष करणीय कार्य यही है कि पाण्ड्यराज किसी प्रकार प्रापके हाथ से ही रोगमुक्त हों ।" महारानी द्वारा सुझाये गये उपाय को अपने कार्य की सिद्धि का प्रमोघ उपाय मानते हुए शैव सन्त ज्ञानसम्बन्धर ने कहा :- "आप विश्वास रखिये कि यौगिकी क्रिया के माध्यम से मैं पाण्ड्यराज को इस असाध्य माने जा रहे रोग से जीवन भर के लिये मुक्त कर दूंगा।" रानी ने बड़ी ही चतुराई के साथ अपनी योजना के क्रियान्वयन हेतु अपने पति से निवेदन किया - "स्वामिन् ! भांति-भांति के उपचारादि करवाये जाने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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