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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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भीम के गदा उठा लेने पर उनके समक्ष कोई खड़ा नहीं रह सकता, उसी प्रकार जैन मुनि द्वारा लेखनी उठा लिये जाने पर उसके समक्ष
संसार का कोई व्यक्ति नहीं ठहर सकता।
इस प्रकार अधिकाधिक लोकप्रिय होता हुआ जैन धर्म जिस समय चहुंमुखी उत्कर्ष के पथ पर अग्रसर हो रहा था, उस समय ईसा की सातवीं शताब्दी में शैव सन्तों ने तमिलनाडु के पाण्ड्य राज्य की राजधानी मदुरा और पल्लव राज्य की राजधानी कांची में शैव धर्म के प्रचार-प्रसार का अभियान चलाया।
उस समय जैनधर्म का दक्षिण में वर्चस्व होने के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जन-जीवन के स्तर को ऊपर उठाने वाले जनकल्याणकारी कार्यों में जैन धर्मावलम्बियों के सर्वाधिक सक्रिय योगदान के फलस्वरूप जैन धर्म बहुजन सम्मत एवं सर्वाधिक लोकप्रिय बना हुआ था। शैव सन्तों ने अनुभव किया कि जब तक जैन धर्म के वर्चस्व को, उसकी लोकप्रियता को समाप्त नहीं कर दिया जाता, उन्हें अपने लक्ष्य की पूर्ति में सफलता नहीं मिल सकती। जैन धर्म को अपने अभीप्सित लक्ष्य की पूर्ति में बाधक समझ कर उन्होंने सर्वप्रथम जैन धर्म पर प्रहार करने का निश्चय किया। किन्तु मदुरा और कांची के जैन संघ सुगठित एवं सशक्त थे और उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। ऐसी दशा में जैन धर्म को जड़ से समाप्त करने की बात तो दूर रही, उसे किसी प्रकार की हानि पहुंचाना भी उस समय बड़ा दुस्साध्य कार्य था। शैव सन्तों ने इसे सुसाध्य बनाने के लिये सर्वप्रथम येन केन प्रकारेण राजसत्ता के अपने पक्ष में करने की सोची।
मदुरापति सुन्दर पाण्ड्य जैन धर्मावलम्बी था। किन्तु उसकी रानी (चोल राजपुत्री) और पाण्ड्यराज का प्रधान मन्त्री- दोनों ही शैव थे। प्रसिद्ध शैव सन्त ज्ञान सम्बन्धर ने सुन्दर पाण्ड्य की रानी और प्रधानमन्त्री के साथ सम्पर्क स्थापित किया । मन्त्रणा करते समय सुन्दर पाण्ड्य की रानी ने उपाय सुझाते हुए कहा :"गुरुवर ! पाण्ड्य राज की कमर में घूब. (कूबड़) की ग्रन्थि उभर आने के परिणामस्वरूप वे कुबड़े हो गये हैं। उनकी कमर पूरी तरह झक गई है। इस कारण वे सदा चिन्तित और दु:खी रहते हैं। यदि आप किसी औषधोपचार से
' (क) डा० के. ए. नीलकण्ठ शास्त्री ने कांची के राजा महेन्द्रवर्मन का शासनकाल ई० सन्
६००-६३० माना है। इससे इसके समकालीन कुब्ज पाण्ड्य, अप्पर, ज्ञानसम्बन्धर और शैवों के हाथों जैनधर्म पर आये संकट का भी ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आस-पास का समय निश्चित किया जा सकता है। दक्षिण भारत का
इतिहास, पृ. १२६ (ख) के. वी. सुब्रह्मण्यम् एवं रामास्वामी अयंगर भी इसे ईसा की सातवीं शताब्दी की
घटना मानते हैं । (मीडिएवल जैनिज्म, बी. ए. सेलेटोर, पृ. २७५)
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