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जैन धर्म दक्षिणापथ में संकटापन्न स्थिति में
गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट और होय्सल ( पोय्सल ) - इन चार राजवंशों के परिचय में बताया जा चुका है कि शताब्दियों तक जैनधर्म को प्रमुख प्रश्रय देने वाले इन राजवंशों के राजाओं, रानियों, प्रधानामात्यों, दण्डनायकों, सामन्तों, श्रमात्यों और प्रायः सभी वर्गों के प्रजाजनों द्वारा जैन धर्म के प्रचार-प्रसार एवं उत्कर्ष की दिशा में किये गये विविध आयामी कार्यों के परिणामस्वरूप जैनधर्म की गणना दक्षिण के प्रमुख धर्मों में की जाने लगी और उसका प्रायः सभी दक्षिणी प्रदेशों में, राज्यों में ईसा की दूसरी शताब्दी से ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक पूर्ण वर्चस्व रहा । "
एतद्विषयक पूर्व में किये गये जैन संहार चरितम् और पेरियपुराण के उल्लेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि तमिल प्रदेश में ज्ञानसम्बन्धर, अप्पर आदि शैव सन्तों द्वारा शैवधर्म के प्रचार-प्रसार एवं प्रभ्युदय के लिये प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति के समय भी जैनधर्म दक्षिणापथ का बहुजनसम्मत और सर्वाधिक वर्चस्वशाली धर्म था । अपने इस वर्चस्वकाल में जैन आचार्यों, श्रमणों और विद्वानों ने तमिल, तेलुगू, कन्नड़ आदि दक्षिण की भाषाओं में अनेक अनमोल एवं अप्रतिम ग्रन्थरत्नों की रचनाएं कर वहां के निवासियों में ज्ञान के चहुँमुखी प्रसार के साथसाथ दक्षिणापथ के साहित्य को सदा सर्वदा के लिये समृद्ध बना दिया । सरस्वती की इस उत्कट उपासना के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण दक्षिणापथ में जैन मुनियों को ज्ञान का प्रतीक मानकर सर्वत्र उनकी यशोगाथाएं गाई जाने लगीं। उन गाई जाने वाली यशोगितिकाओं के पदों में से एक पद इस प्रकार है
1.
सवणं बलपंगोले गांडिवि बिल्गोले बलविरोधि वज्रङ्गोले दानवरिपु चक्रंगोले कौरवारि गदेगोले पोणर्केगावं नित्वं ॥
अर्थात् -विद्या के क्षेत्र में ज्ञान के क्षेत्र में जैन मुनि के समक्ष कौन खड़ा रह सकता है ? जिस प्रकार अर्ज ुन के गाण्डीव धनुष उठाने पर, इन्द्र के वज्र उठा लेने पर, विष्णु के चक्र उठाने और
In fact a close study of Indian religious movements particularly those in the Peninsula, would reveal that for nearly four centuries, second to the beginning of the seventh century Jainism was the predominant faith.
( स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, रामास्वामी एम. एस. अय्यंगर लिखित )
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